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जैन तत्त्व दर्शन
3. जिन पूजा विधि A. अष्टप्रकारी पूजा के दोहे, श्लोक एवं रहस्य
(1) जल पूजा जल पूजा का रहस्य
जल द्वारा प्रभुजी का पक्षाल होता है और कर्म हमारी आत्मा पर से दूर हो जाते है
जलपूजा जुगते करो, मेल अनादि विनाश, जलपुजा फल मुज हजो, माँगु ओम प्रभु पास || ॐ ह्रीं श्रीं परमपुरूषाय परमेश्वराय जन्म-जरामृत्यु-निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा । (दूध का पक्षाल करते समय बोलना)।
मेरू शिखर मेरू शिखर न्हवरावे हो, सुरपति मेरू शिखर न्हवरावे, जन्मकाल जिनवरजी को जाणी, पंचरूपे करी आवे || रत्नप्रमुख अडजातिना कलशा, औषधि चूरण मिलावे,
क्षीर समुद्र तीर्थोदक आणी, स्नात्र करी गुण गावे || अणी परे जिन प्रतिमा को न्हवण करी, बोधिबीज मानु वावे, अनुक्रमे गुण रत्नाकर फरसी, जिन उत्तम पद पावे ||
ज्ञान कलश भरी आतमा, समता रस भरपूर, श्री जिन ने नवरावता, कर्म थाये चकचूर ।।
भावना: हे प्रभु! आप तो स्वयं शुद्ध हो। आपको स्नान करा कर मैं अपनी अशुद्धि दूर कर रहा हूँ। दोषों से मलिन मेरी आत्मा को यह जलधारा स्वच्छ बना रही है। प्रभु! आपकी देह पर बह रहा यह झरना मेरी आत्मा में समता रस का अमृत झरना प्रवाहित कर रहा है।
आपका अभिषेक कर के हे प्रभु! मेरे हृदय-सिंहासन पर सम्राट के रूप में मै आपको प्रतिष्ठित करना चाहता हूँ क्योंकि अब मैनें अपने हृदय-सिंहासन पर आज तक स्थापित मोह राजा को बिदाईदे दी है। तो अब हे प्रभु ! आप मेरे हृदय में पधारिए और सिंहासन को सुशोभित किजिए! और मुझे मेरे आत्महितार्थसंयममार्गी बनाइए।
सचित्त जल द्वारा की जाती यह पूजा मुझे जलकाय ही नहीं, षट्काय की हिंसा से भी मुक्ति दिलाएगी ही, ऐसा विश्वास है!