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________________ प्रास्ताविक वक्तव्य इस प्रन्थमें न केवल जैन आचार्योंका ही इतिवृत्त प्रथित है, परंतु साथमें तत्कालीन अनेकों राजाओं, प्रधानों, विद्वानों, कवियों और अन्यान्य महा जनोंके भी प्रसंगोपात्त कितने ही महत्वके उल्लेख और ऐतिहासिक तथ्य अन्तर्निहित हैं। चक्रवर्ती सम्राट् हर्षवर्द्धन, प्रतिहार सम्राट् आमराज ( नागावलोक), विद्याविलासी परमार नृपति भोजदेव, चालुक्य चक्रवर्ती भीमदेव, सिद्धराज जयसिंह और परमाईत राजर्षि कुमारपाल आदि कई इतिहासप्रसिद्ध राजाओं, एवं कविचक्रवर्ती भट्ट बाण, कविराज वाक्पति, महाकवि माघ, सिद्धसारखत धनपाल, कवीन्द्र श्रीपाल आदि भारतके साहित्य-सम्राटों की भी इसमें कितनीक विश्वस्त ऐतिह्य घटनाएं उल्लिखित हैं, जिनका सूचन अन्यत्र अप्राप्य है । ६ रचनाकी दृष्टिसे भी यह ग्रन्थ उच्च कोटिका है । इसकी भाषा प्रावाहिक हो कर प्रासादिक है । वर्णन सुसंबद्ध और सुपरिमित है । कहीं भी अतिशयोक्ति या असंभवोक्ति दृष्टिगोचर नहीं होती । महाकवि और प्रभावशाली धर्माचार्यों का ऐतिहासिक वर्णन करनेवाला इसकी कोटिका और कोई दूसरा ग्रन्थ समग्र संस्कृत साहित्य में उपलब्ध नहीं है । ॐ जिस तरह प्रबन्धचिन्तामणिके वर्णनके साथ सम्बन्ध रखनेवाले अन्यान्य प्रकीर्ण प्रबन्धोंका संग्रहात्मक 'पुरातनप्रबन्धसंग्रह ' नामका पूरकग्रन्थ, प्रबन्धचिन्तामणिके द्वितीय भागके रूपमें प्रकट किया गया है, वैसा ही इस ‘प्रभावकचरित' के वर्णनके साथ संबन्ध रखनेवाले प्रकीर्णक प्रबन्धोंका भी एक पूरक ग्रन्थ, तैयार किया जा रहा है, जिसमें प्राकृत और संस्कृत भाषामें उपलब्ध ऐसे अनेकानेक प्राचीन चरितों-प्रबन्धों का महत्वका संग्रह होगां । इम चरितों-प्रबन्धोंके अवलोकनसे विद्वानोंको इस विषयकी बडी विशिष्ट बातें ज्ञात होंगीं कि जैन धर्मको जो यह रूप मिला है वह किन महान् विद्वान् और प्रभावशाली आचायोंके कृतित्वका फल है । किस तरह जैन दर्शनको धीरे धीरे एक संघटित जनसंघ और धार्मिक समुदायका रूप मिला, किस तरह अन्यान्य धर्मके महापण्डि - तोंके साथ वाद-विवाद की प्रतिस्पर्द्धामें उतर कर जैन आचार्योंने अपने धर्मकी स्थिति और प्रतिष्ठा बढाई, किस तरह जैन धर्मानुयायी स्वतंत्र जातियोंका और कुलोंका संगठन हुआ, किस तरह जैन तीर्थों और मन्दिरोंका निर्माण हुआ, किस तरह जैन वाङ्मयका ऐसा विशाल और अपूर्व विकास हुआ, किस तरह जैन धर्मके इतने संप्रदायों और गच्छों का आविर्भाव हुआ और कैसे उनमें पक्ष-विपक्ष बने – इत्यादि विषयक, जैन धर्म और जैन समाजके क्रम-विकास या क्रम-परिवर्तनका सारभूत और तथ्यपूर्ण इतिहास इन प्रबन्धोंके अध्ययन मननसे उत्तम प्रकार हो सकेगा । कार्तिक शुक्ला १५ वि० सं० १९९७ भारतीय विद्याभवन, आन्ध्रगिरि (आन्धेरी); बम्बई. } - जिन विजय
SR No.006031
Book TitlePrabhavak Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhachandrasuri, Jaydarshanvijay
PublisherJinagna Prakashan
Publication Year2008
Total Pages588
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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