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________________ ... संसार मे भाई और बहिनके सम्बन्धो को लेकर लेखकने खूबही हृदयस्पर्शिनी बातो का मानचित्र खींचा हैं । "हीरकुमार" अपनी बहिनको एक बात कहते हैं हे भगिनी ? जिस प्रकार सुगन्धि से चन्दनवृक्ष सुहावना लगता है वैसे ही यह संसार धर्मशीलों से सुन्दर लगता हैं । फिर कोई अपने कुलमें धर्मवती बन जाय तो कुल भी श्लाध्य होगा। जिस प्रकार एक ही परमाणु नील पीत रक्तादि भिन्न-भिन्न रूप से संसार मे रहता हैं उसी प्रकार एक ही जीव बहिन, पत्नी, बन्धु, माता. पिता, पुत्रादि अनेक पर्यायों से इस संसार में पर्यटन करता हैं । कैसी अच्छी बात हैं। दीक्षित श्री हीरहर्ष (विजयहीरसूरि) ब्राह्मण विद्वानों के पास अध्ययन कर रहे हैं और महाभाग ब्राह्मण, अध्ययन- अध्यापन, पलन पालन और दान प्रतिदान के नियमों से नैष्ठि हैं । ऐसे नैष्ठिक विद्वानों के समीप से विद्वान बनकर विजयहीरसूरि एक प्रतिष्ठित प्रामाणिक आचार्य बनगए गुरुके प्रियपात्र बनकर समाज के संचालक रहे और संयम के साधक रहे । इनके जीवन की विशेषताओं पर लेखक भावुक हैं। गणिजी ने इतिहास को सामने रखकर पट्टपरम्पराओं को समुचितरुप से काव्य में सजायी हैं । समस्त जीवन चरित्रमे भक्ति का भाव प्रधान नजर आ रहा हैं । भाषा की विदग्धतासे और भावो की भव्यता से यह ग्रन्थ गौरवास्पदय है। इस युग के वाङ्मयविद्यार्थों को यह ग्रन्थ अवश्य ही पढना चाहिए । भौगोलिक तत्त्वों का परिचय मिलता हैं । दार्शनिक मान्यताओ का विवरण उपलब्ध होता हैं । शान और वैराग्य के विषयों को कविने काव्यप्रतिभा से मंजल बना दिया हैं। मगल कालीन समाजिक सत्यता ता का परिचय कराते कविने खुब निपुणता रखी हैं। निमित्तशास्त्र को लेकर स्थान स्थान पर प्रसंगौचित प्रमाण दिए हैं । ज्योतिष की दृष्टि से ग्रहगोचरों का भी ठीक दिग्दर्शन दिया हैं इस प्रकार यह ग्रन्थ जीवन चरित्र की द्रष्टि से भी उपयोगी है और साहित्य की क्षमताओं से भी समक्ष हैं । इस पर जितना जितना लिखा जाय उतना ही म्यून हैं । कर्ता ने खूब कुशलता से इस काव्य को कीविदों के लिये कल्पवृक्ष तुल्य बनाया हैं। __ ग्रन्थकार, सिंहविमलगणिके शिष्य देवविमलगणि हैं । ये शिव नामके शेठ के संसारी पुत्र थे । सौभाग्यदेवी के लाडले संतान थे । इनकी सम्पूर्ण योग्यता 'हीरमहाकाव्य" में उज्ज्वल है। व्याकरण के गूढप्रयोगो में माघ के अनुजीवी वने हे । कल्पनाओं के उडान में श्री हर्षकविके साथी रहा हैं। उपमाओं मे क्वचित् क्वचित कालिदास की स्मृति कराते नजर आते हैं । इस लेखपर वैदिक साहित्यके समुचित ज्ञान संस्कार के । बौत्तो के विज्ञान क्षणिक-शून्यवादो का अध्ययन है । जैनागमो की मान्यताओ का यथोचित प्रयास है । साहित्यक्षेत्र को यह अनूठी ग्रन्थमयी स्मृति लेखक के जीवनको अजरामर बना रही हैं ।
SR No.005967
Book TitleHeersaubhagya Mahakavyam Part 01
Original Sutra AuthorDevvimal Gani
AuthorSulochanashreeji
PublisherKantilal Chimanlal Shah
Publication Year1977
Total Pages614
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size86 MB
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