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.. — समदर्शी बहुश्रुत आचार्य हरिभद्रः भगवती से भवकी मुक्ति चाहते हैं और सदा के लिये भव विरही बनते हैं-भवविरहवर देहि मे देवि सारम् (संसारदावानल )
दैविकशक्तिकी प्राप्ति विना गुरूदेवकी कृता से दुर्लभ हैं। आराधना का रहस्य परम गोप्य हैं । केवल सुपात्र को ही समजाया जाता है, सर्वसामान्य उसके अधिकारी ही नहीं हो शकते हैं। दैविक उपासना के पहिले गुरु सेवा अनिवार्य हैं । सुसोवित गुरु ही प्रसन्नता से शुभाशीर्वाद देते हैं और जीवनको इच्छाशक्ति से एश्वर्यवान् क्रियाशक्ति से कर्मठ तथा विचारशक्तिले विलक्षण बना देते हैं । इसके लिये प्रक्रिया कौमुदीकार कहते हैं
'यदृष्टिपातसमर्थ्यान्मूको वाचस्पतिर्भवेत्'
गुरुदेवकी दृष्टिमे ही अलौकिक आकर्षण होता हैं और अपूर्व शान स्नेहका दान रहता हैं यदि कोई गुरुदेवकी कृपादृष्टिका पात्र बन जाय यदि वह मूक भी है तो वाणी का व्याख्यात हो जाता है और वाग्पति की तुलना मे आ जाता हैं। .
गुरुत्तत्त्व से तेजस्वी पुरुषो मे एक स्वाभाविक स्निग्धता रहती है अज्ञात आकर्षणशक्ति उद्भावित होती है। वे प्रसन्नचित्त से विनीत विनेय की जड़ता का संहार कर लेते है। सदैव शक्तिमान रखकर वाणीका विचक्षण विद्वान बना देते हैं प्रसन्नगुरुदेव ही शिष्य के लिए सशक्त वरद विबुध है। - गणिप्रवर श्रीदेवविमल भी इसी काव्यमें गुरुओं की प्रसन्नता की पल ही विद्याप्राप्ति मानते हैं--
पञ्चक्षुषा मातृमुरवोऽकशेषविच्छेरवरतानुषंगी।।
गुरु सुराणामधरीकरोति भवन्तु ते श्री गुरवः प्रसन्नाः ॥३॥ गुरुओं के कृपा कटाक्ष से जडभी विद्वानो के शिरोमणि हो जाते और वे अपने शिष्य को देवगुरु बृहस्पति के तुल्य सजा देते हैं । एसे गुरुदेव सदा प्रसन्न रहे।
सन्तों के सुहृद् और पुण्यपावनी नदियों के निपुणशाता हीरसौभाग्यकार स्थलस्थल पर सन्तजनो की प्रसन्नता का आह्वान करते है कि-सन्त सदा शुद्ध आशय वाले गंगा के निर्मल प्रवाह जैसे, निर्मल रहनेवाले बुद्धिकी कसोटी से काव्यमय स्वर्ण की परख करते रहते है। विद्वान लेखकके हृदयमे सन्तो की उदारता का अपूर्वस्थान है । सहृदयी बनकर शुद्धाशयवाले सन्तो से प्रसन्नता की भीख मांगते है । गंगा का प्रवाह जितना पवित्र होता है उतना ही सन्तोंका आशय शुद्ध होता है ।
ईश्वरवाद के मार्गमें श्रद्धा, भक्ति और शान का अपूर्व प्रभाव रहा है । भगव. तकृपा से लंगडा भी पर्वतारोही हो जाता है । मूक भी वाचाल बन जाता है तो क्यों में देवविमल गणि प्रभुके प्रभावसे हीरसौभाग्य को रचने में प्रभु नहीं बन सकता !
'प्रभोः प्रभावाकथवा कथं न प्रभुर्भवामि प्रविधातुमेतत् । स्वः सत्प्रसादाखिदशाचलस्य शिरवासु खेलयति किं स्वजः ॥९॥