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धर्मसागर रचित श्रीहीरविजयसूरिस्वाध्यायः ॥
श्रीगुरुभ्यो नमः । पणमिअ वीरजिणं(णिं)दं थुणामि सिरिहीरविजयसूरिंदं।
कुमयतमोहदिणंदं (जिंद) वयणामयपुण्णिमाचंदं ॥ १॥ पंचायारविआरं यवयणसिरिसुंदरीइ उरहारं।
नाणद्धिलद्धपारं मुत्तिपुरिपवेसवरदारं ॥ २॥ पंचमहव्वयसुरगिरि - भारुव्वहणम्मि अहिणवो वसहो।।
निस्सेससूरिचूडामणी जिणपणीअजलमीणो ॥ ३ ॥ णणु दव्वथया अहिओ भावथओ संथुओ अ समयम्मि।
तां होउ असामइअं अलं खु पासायपमुहेहिं ॥ ४॥ सच्चं पुण सामइअं अहिअं अंसेण सव्वहा नेव।
रययापव्वयपुंजा गुंजा-कणयं जहा अहिअं ॥ ५॥ अहंवा देवभवाओ मणुअभवो उत्तमो उ अंसेणं। .. तेणेव य देवभवो मणुअभवे उत्तमो भणिओ ॥ ६॥ जो पुण जइ(ई)ण भावत्थओ अ सो सव्वविरइसब्भावो।
.. सव्वप्पयारपउरो असेसवव्वत्थयापउरो ॥ ७॥ जह कणगकूडलंकिअ - वेअड्डो सव्वओ स रययमओ।
. . कंचणगिरितुल्लत्तं नो पावइ कहवि तुंगो वि ॥ ८॥ सावयभावथओ पुण मुणिदव्वथउव्व होइ अप्पयरो।
___अविवक्खाए दुन्नवि कमेण दुहं पहापहिआ ॥ ९॥