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गुरु तइं रोपे भुवनमई, बहु बोधि बीजके खेत, पुण्य जगतकू तइ दिया, मोहि दरिसन क्युं नहुं देत. जगत० ८ तोहि सेवक तोहि किंकरो, एक तुझ सेवा लीन, चाह मोहि उर नहीं, तेरे दरिसनको आधिन. जगत० ९ कीनी याचन बहु परिं, पणि तुं न दीइ दीदार, . अइसई मितंपचकहा भयुं, मइनि थुण्यो तुं हि दिदार. जगत० १० चरण सरण मोहि ताहरा, इब दरिसण देहु न देंहु, उदकबूंद इक नहु दिइ, तोहि चातक चित्तमइ मेहु. जगत० ११ श्रीविजयदानगुरु पटोधरु, श्रीहीरविजय मुणिचंद चाहत नित तोहि दरिसकू मुनि भावविजय आणंद,
____ जगत गुरुहीर हीर हीर० १३ ॥ इति हीरगुरुंगीतम् ॥
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