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देवपत्तन में मंत्रपदों से, सागर रत्नप्रधान 1
गुरु के चरणों में उछाले, रत्न ढेर को आन ॥ आवो० ॥ ५ ॥
निर्धन पेथड़ जिनकी कृपा से, बने बड़ा दिवान । शासन का झंडा फहरावे, गुरुकृपा बलवान ॥ आवो० ॥ ६ ॥
जिनके वचन से यक्ष कपर्दी, छोडे मांस बलिदान ।
सेवक होकर शत्रुंजय पर, पावे अपना स्थान ॥ आवो० ॥ ७ ॥
जोगणियों ने कारमण कीना, चहा मुनियों का प्राण ।
उनको पाटे पर चिपटा कर दिया गुरु ने ज्ञान ॥ आवो० ॥ ८ ॥
गुरुके कण्ठको मंत्रसे बांधा, यूं ली उनसे वाण ।
तपगच्छ को उपद्रव नहीं करना, स्थंभित कर अज्ञान | आवो० ॥ ९ ॥
एक योगी चूहे के द्वारा, करे गच्छ को परेशान । उसके उपद्रवको हटाया, पाया बहु सन्मान ॥ आवो० ॥ १० ॥
रात में गुरु का पाट उठावे, गोधरा शाकिनी जाण ।
उनसे भी तब मुनि रक्षा का, लीना वचन प्रमाण ॥ आवो० ॥ ११ ॥
सांप काटते कहा संघसे, अपना भविष्य ज्ञान । संघनेभी वह जडी लगाई हुये गुरु सावधान ॥ आवो० ॥ १२ ॥
भस्म ग्रहकी अवधि होते, शासन के सुलतान । आनन्दविमल गुरु जिन्हों को, नमे राज सुरत्राण ॥ आवो० ॥ १३ ॥
क्रियोद्धारसे मुनिपंथ को, उद्धरे युगप्रधान । ज्ञानं कृपासे दूर हटावे, कुमति का उफाण ॥ आवो० ॥ १४॥
जेसलमेर मेवात मोरबी, वीरमगाम मैदान ।
सत्य धर्मका झंडा गाडा, दिन दिन बढ़ते शान ॥ आवो० ॥ १५ ॥
मणिभद्र सेवा करे जिनकी, विजयदान गुरुं मान । उनके पट्ट प्रभाविक सूरि, हीर हीरा की खाण ॥ आवो० ॥ १६ ॥
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