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________________ कविमविजयरचित ' श्रीहीर विजयसूरीश्वर स्तुति जगमगइ, जबलगिं जलऩकी जोति जग जलगं तपइ तिहुणतिलउ दिनमनी; जबलगिं जगतमिं पवन फुरकती फिरती, जलगं नीरनिधि नीरकी झुनी सुनी. महीमोह, जबलगिं मंडित जबलगिं ओपए अचल अवनी घनी; तबलगिं हेम कहि हरखसुं हीरजी जीव तुं जीव तुं जीव तुं जीव तपगछधनी. १ . जबलगिं ईस जगदीसके अंगसुं रही, आलिंग करि तुहिनगिरिनंदनी; जबलगिं नंदके नंद आनंदसु करग्रही, नेह. नीरनिधिनंदनी; करि . जबलगिं करइ, इंदु अतिहिं आदर राग धरि राति दिन दक्षकी नंदनी तबलगिं० २ जबलगिं . सबल सन्नेहसुं संमुही, अंबुनिधिके बहुत बाहिनी; आपणे अवल आदरि अमर, आव जबलगिं राजसुं रंग भरि रमति जयवाहिनी; जबलगिं धरति धुयधाम धनधोरणी, तबलगिं० ३ जबलगिं गहनगंगा गगनगाहिनी. १८१
SR No.005849
Book TitleHir Swadhyaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahabodhivijay
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year1998
Total Pages356
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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