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प्रायोन्द्रिय-॥४ने गंध ३९ ४२वान शान्ति क्षीनथी 28, जीहपरिण्णाणा अपरिहीणा२सनेन्द्रिय-मानी २स अड ४२वानी शस्ति क्षीए। नथी 25, भने फरिसपरिणाणाअपरिहीणा-स्पर्शनन्द्रिय-स्पर्श ४२वानी शक्ति क्षी९. नथी 28, इच्चेएहि-२मा प्रारे विरूवरूवेहि-विविध ५४२नी परिण्णाणेहि-शान शतिमी अपरिहाय-माणेहि-य सुधी क्षी 25 नथ. त्यां सुधा आयटुं-स्वयंना प्रत्यार्थे सम्मं समणुवासिज्जासि-सारी राते प्रयत्न-उधम ४२वो ऽय. त्ति बेमि-पूर्ववत्,
ભાવાર્થ - આ વિનાશી શરીરનો કોઈ ભરોસો નથી. જરાય વિશ્વાસ રાખવા જેવો નથી, વૃદ્ધાવસ્થા અને રોગનો સમુદાય તેની ઈન્દ્રિયોની શક્તિઓનો નાશ કરી દે છે એટલે જ્યાં સુધિ ઈન્દ્રિયોની શક્તિ વૃદ્ધાવસ્થા અને રોગો દ્વારા ક્ષીણ નથી થઈ ત્યાં સુધી મનુષ્યોએ આત્મકલ્યાણમાં પ્રવૃત્ત થવું જોઈયે. અન્યથા અવસર વીતી ગયા पाह पश्चाता५ ४२१. सिवाय 50 ५९ साथम भावानुं नथी. ॥ ७१ ॥
भावार्थ :- इस विनाशी शरीर का कुछ भरोसा नहीं है तथा जरा (बुढ़ापा) और रोग इसकी इन्द्रियों की शक्ति का नाश कर देते हैं । इसलिए जब तक ही मनुष्य को आत्म-कल्याण में प्रवृत्त हो जाना चाहिए अन्यथा अवसर बीत जाने पर केवल पश्चात्ताप के सिवाय कुछ हाथ आने का नहीं है ॥ ७१ ॥
द्वितीय उद्देशकः) संयमे वर्तमानस्य कदाचिदरतिः स्यात् तद्व्युदासार्थमाह
अरइं आउट्टे से मेहावी, खणंसि मुक्के ॥७२॥ अरतिं आवर्तेत - अपवर्तेत स मेघावी एवं क्षणे क्षणेन वा मुक्तो भवेदिति ॥७२॥ -- अन्वयार्थ : से-ते मेहावी-बुद्धिमान् ५३५ अरई-संयममा उत्पन्न येव मतिनो आउट्टे-त्या ४३, माम ४२वाणो ५३५ खणंसि-क्षमात्रमi.४ अर्थात् थो13 °४ समयमा ५३५२ मुक्के-भुत थ य छे.
ભાવાર્થ-સાંસારિક વિષય ભોગોથી મનને સર્વથા હટાવીને સંયમમાં પ્રેમ રાખવાવાળા પુરૂષ જે આનંદનો અનુભવ કરે છે, તે અનુભવ ચક્રવર્તી પણ નથી કરી शता. ॥ ७२ ॥ - भावार्थ :- सांसारिक विषयभोगों से मन को सर्वथा हटा कर एकान्त संयम में रति रखने वाला पुरूष जिस आनन्द का अनुभव करता है, चक्रवर्ती भी उसका अनुभव नहीं कर सकता है ॥ ७२ ॥ .. ये पुनरनुपदेशवर्तिनः कण्डरीकाद्यास्ते चतुर्गतिकसंसारान्तवर्तिनो दुःखसागरमधिवसन्तत्याह
अणाणाए पुट्ठा वि एगे णियटुंति, मंदा मोहेण पाउडा, अपरिग्गहा भविस्सामो, समुट्ठाए लद्धे कामे
श्री आचारांग सूत्र 0000000000000000000000000000७(६१