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________________ તો પણ વેદનાનો અનુભવ તો કરે જ છે. જેમકે પૂર્વ કર્મના ઉદયથી કોઈ પુરૂષ મૃગાપુત્ર સમાન જન્માક્વ, બહેરા-મુંગો, કોઢી-પાંગળો અને હાથ-પગ વગરનો હોય અને જે કોઈ પુરૂષ તેના અવયવાદિનું છેદન-ભેદન કરે, મારે તો પણ તે જીવ બોલતોચાલતો-ફરતો-રડતો નથી. પરંતુ દુઃખનો અનુભવ તો કરે છે. આ પ્રમાણે પૃથ્વીકાયને ખોદવું તથા છેદન-ભેદન કરવાથી પૃથ્વીકાયના જીવો પણ દુઃખનો અનુભવ તો કરે જ છે. એટલે જે પુરૂષો તીર્થકરના વચનોથી અથવા સાધુ પુંગવો દ્વારા સાંભળેલ છે કે પૃથ્વીકાયના આરંભથી પાપબંધ થાય છે. તેથી વિચારવાન પુરૂષો પૃથ્વીકાયના આરંભનો सर्वथा त्या ४२ छ. ॥ १७ ॥ भावार्थ :- पृथ्वीकाय जीव है, इसलिए उसका आरम्भ करना पाप का कारण है । यद्यपि पृथ्वीकाय का जीव देखता, सुनता, सूंघता, बोलता और चलता फिरता नहीं है, तथापि वह वेदना का अनुभव तो करता ही है। जैसे पूर्व कर्म के उदय से कोई पुरुष मृगापुत्र के समान जन्मान्ध, बधिर-बहरा, मूक-गूंगा, कोढ़ी, पंगु और हाथ-पैर आदि से रहित हो यदि कोई पुरुष उसके अवयवादि का छेदन भेदन करे, मारे, पीटे तो यद्यपि वह बोलता, चलता, फिरता और रोता नहीं है परन्तु दुःख का अनुभव तो करता ही है । इसी तरह पृथ्वीकाय को खोदने, खनने और छेदन भेदन करने से पृथ्वीकाय का जीव भी दुःख का अनुभव तो करता ही है । इसलिए जो पुरुष तीर्थंकर भगवान् से अथवा दूसरे साधु महात्माओं से यह सुन चुके हैं कि पृथ्वीकाय के आरम्भ से पापबन्ध होता है वे विचारवान् पुरुष पृथ्वीकाय के आरम्भ का सर्वथा त्याग कर देते हैं ॥ १७ ॥ पृथिवीकायिकानां जीवत्वं प्रसाध्य तथा नानाविधशस्त्रसंपाते वेदनां चाविर्भाव्य अधुना तद्वधे बन्धं दर्शयितुमाह एत्थं सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चए आरंभा परिण्णाया भवंति । तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं पुढविसत्थं समारंभेज्जा, णेवण्णेहिं पुढविसत्थं समारंभावेज्जा, णेवण्णे पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा, जस्स एए पुढविकम्मसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे ॥ १८॥ त्ति बेमि ॥ अत्र शस्त्रमसमारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति तत् परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं पृथिवीशस्त्रं समारभेत, नैव अन्यैः पृथिवीशस्त्रं समारम्भयेत्, नैव अन्यान् पृथिवीशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीयात् । यस्यैते पृथिवीकर्मसमारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति स एव मुनिः परिज्ञातकर्मेति ब्रवीमि ॥ १८॥ अन्वयार्थः- एत्थं - मा पृथ्वी॥५३५ सत्थं - शस्त्रानो असमारंभमाणस्स - भारम न ४२वावा पु३षने इच्चेए - ते पूर्वोत. आरंभा - मारमनी परिणाया भवंति - श्री आचारांग सूत्र 99990920000000000000000000७ १५
SR No.005843
Book TitleAcharang Sutram Pratham Shrutskandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVikramsenvijay
PublisherBhuvan Bhadrankar Sahitya Prachar Kendra
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_acharang
File Size9 MB
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