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________________ श्री स्थानाङ्ग सूत्र सानुवाद भाग २ परिशिष्ट को संकलित किया है। उन सबसे स्वाभाविक रूप में यह प्रतीत होता है कि ये शब्द निश्चित रूप से वर्तमान में प्रचलित अर्थों (ज्यामितीय अर्थ नहीं) में ही प्रयुक्त हुये हैं । किन्तु यहाँ भी हम अपने पूर्व तर्क को उद्धृत करते हैं जब वर्ग एवं घन करना ये दोनों क्रियायें मूल परिकर्मों में आ जाती हैं तब उन्हें नवीन विषय के रूप में प्रतिष्ठित करने का क्या औचित्य ? पुनः अनुयोगद्वार सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र आदि प्राचीन ग्रन्थों में जब घातांकों के सिद्धान्त उपलब्ध हैं एवं उनमें १२वीं घात तक के प्रयोग निर्दिष्ट हैं? तब चतुर्थ घात को ही क्यों विशेष महत्त्व दिया गया? धवला में निहित वर्गित संवर्गित की प्रक्रिया में २५६ तक की घात आ जाती है। चतुर्थ घात निकालने की क्रिया वर्ग करने की क्रिया की पुनरावृत्ति के समतुल्य है। जैनाचार्य वर्ग एवं घन करने की अपेक्षा अधिक जटिल क्रियाओं वर्गमूल एवं घनमूल निकालने में विशेष सिद्धहस्त थे । यदि वर्ग एवं घन को स्वतंत्र विषय की मान्यता दी गयी तो उन्हें भी दी जानी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। आखिर क्यों? 1 संभवतः उपर्युक्त प्रश्नों एवं अन्य कारणों को ही दृष्टिगत करते हुए दत्त ने भी लिखा कि "I have no doubt in my mind that 'Varga' refers to quadratic equation 'Ghan' refers to cubic equation and 'Vargavarga' to biquadratic equation." यद्यपि आज के उपलब्ध आगमों में हमें घन समीकरण एवं चतुर्थघात समीकरण के स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलते किन्तु वर्तमान में अनुपलब्ध ग्रन्थों में उनका पाया जाना अस्वाभाविक नहीं है। आगमिक ज्ञान के आधार पर रचित गणितसार संग्रह में तो ऐसे उल्लेख प्रचुर हैं अतः दत्त का कथन असत्य नहीं कहा जा सकता है। आयंगर एवं जैन ने भी उनका समर्थन किया है। १०. कप्पो (कल्प) • पाठ को स्वीकार करते हुए अभयदेवसूरि ने इसकी व्याख्या में लिखा है कि इससे लकड़ी की चिराई एवं पत्थरों की चिनाई का ज्ञान होता है । पाटीगणित में इसे क्रकचिका व्यवहार कहते हैं । अभयदेवसूरिजी ने इसको उदाहरण से भी समझाया है। स्थानांगसूत्र के सभी उपलब्ध संस्करणों में हमें यही पाठ एवं अर्थ मिलता है किन्तु दत्त, कापडिया, उपाध्याय, अग्रवाल एवं जैन आदि सभी ने इसे विकप्पो रूप में उद्धृत किया है एवं इसका अर्थ विकल्प ( गणित ) किया है। विकल्प एवं भंग जैन साहित्य में क्रमचय एवं संचय के लिए आये हैं। जैन ग्रन्थों में इस विषय को विशुद्धता एवं विशिष्टता के साथ प्रतिपादित किया गया है। कचिका व्यवहार, व्यवहारों का ही एक भेद होने तथा विकल्प (अथवा भंग) गणित के विषय का दार्शनिक विषयों की व्याख्या में प्रचुरता एवं अत्यन्त स्वाभाविक रूप से प्रयोग, यह मानने को विवश करता है। कि विकल्पगणित जैनाचार्यों में ही नहीं अपितु प्रबुद्ध श्रावकों के जीवन में भी रच-पच गया था, तभी तो विषय के उलझते ही वे विकल्पगणित के माध्यम से उसे समझाने लगते थे। ऐसी स्थिति में विकल्पगणित को गणित विषयों की सूची में भी समाहित न करना समीचीन नहीं कहा जा सकता। उल्लेखनीय है कि विकल्प गणित कोई सरल विषय नहीं था तभी तो अन्य समकालीन लोगों ने इसका इतना उपयोग नहीं किया। जैन ही इसमें लाघव को प्राप्त थे । अतः विकप्पो त का अर्थ विकल्प ( गणित ) ही है। विषय के समापन से पूर्व विषय से सम्बद्ध कतिपय अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्यों का उल्लेख भी आवश्यक है। आगम ग्रन्थों में चर्चित गणितीय विषयों की जानकारी देने वाली एक अन्य गाथा शीलांक (९वीं श०ई०) ने. सूत्रकृतांग की टीका में पुण्डरीक शब्द के निक्षेप के अवसर पर उद्धृत की है। गाथा निम्नवत् है 1. अनुयोगद्वार सूत्र - १४२ । 2. धवला, पुस्तक- ३ । 3. देखें सं० - ३, पृ० १७२ । 4. देखें सं० १३, पृ० २८ । 422
SR No.005768
Book TitleSthanang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages484
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_sthanang
File Size12 MB
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