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________________ प्रस्तावना श्री स्थानाङ्ग सूत्र जैन आगम 'जिन''की वाणी में जिसकी पूर्ण निष्ठा है, वह जैन है। जो राग द्वेष आदि आध्यात्मिक शत्रुओं के विजेता हैं, वे जिन हैं। श्रमण भगवान् महावीर जिन भी थे, तीर्थंकर भी थे। वे यथार्थज्ञाता, वीतराग, आप्तपुरुष थे। वे अलौकिक एवं अनुपम दयालु थे। उनके हृदय के कण-कण में, मन के अणु-अणु में करुणा का सागर कुलाचे मार रहा था। उन्होंने संसार के सभी जीवों की रक्षा रूप दया के लिए पावन प्रवचन किये। उन प्रवचनों को तीर्थंकरों के साक्षात् शिष्य श्रुतकेवली गणधरों ने सूत्ररूप में आबद्ध किया। वह गणिपिटक आगम हैं। आचार्य भद्रबाहु के शब्दों में यों कह सकते हैं, तप, नियम, ज्ञान, रूप वृक्ष पर आरूढ़ होकर अनन्तज्ञानी केवली भगवान् भव्य जनों के विबोध के लिए ज्ञान-कुसुम की वृष्टि करते हैं। गणधर अपने बुद्धिपट में उन कुसुमों को झेलकर प्रवचनमाला गूंथते हैं। यह आगम है। जैन धर्म का सम्पूर्ण विश्वास, विचार और आचार का केन्द आगम है। आगम ज्ञान-विज्ञान का. धर्म और दर्शन का, नीति और आध्यात्मिकचिन्तन का अपूर्व . खजाना है। वह अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के रूप में विभक्त है। नन्दीसूत्र आदि में उसके सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा है। अपेक्षा दृष्टि से जैन आगम पौरुषेय भी हैं और अपौरुषेय भी (अनादि अनंत होने की अपेक्षा से)। तीर्थंकर व गणधर आदि व्यक्तिविशेष के द्वारा रचित होने से वे पौरुषेय हैं और पारमार्थिक-दृष्टि से चिन्तन किया जाय तो सत्य तथ्य एक है। विभिन्न देश काल व व्यक्ति की दृष्टि से उस सत्य तथ्य का आविर्भाव विभिन्न रूपों में होता है। उन सभी आविर्भावों में एक ही चिन्तन सत्य अनुस्यूत है। जितने भी अतीत काल में तीर्थंकर हुए हैं, उन्होंने आचार की दृष्टि से अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, सामायिक, समभाव, विश्ववात्सल्य और विश्वमैत्री का पावन संदेश दिया है। विचार की दृष्टि से स्याद्वाद, अनेकान्तवाद या विभज्यवाद का उपदेश दिया। इस प्रकार अर्थ की दृष्टि से जैन आगम अनादि अनंन्त हैं। समवायाङ्ग में यह स्पष्ट कहा है-द्वादशांग गणिपिटक कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, यह भी नहीं है कि कभी नहीं है और कभी नहीं होगा, यह भी नहीं है। वह था. है और होगा। वह ध्रव है. नियत है. शाश्वत है. अक्षय है. अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है। आचार्य संघदासगणि ने बृहत्कल्पभाष्य में लिखा है कि तीर्थंकरों के केवलज्ञान में किसी भी प्रकार का भेद नहीं होता। जैसा केवलज्ञान भगवान् ऋषभदेव को था, वैसा ही केवलज्ञान श्रमण भगवान् महावीर को भी था। इसलिए उनके उपदेशों में किसी भी प्रकार का भेद नहीं होता। आचारांग में भी कहा गया है कि जो अरिहंत हो गये हैं, जो अभी वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे, उन सभी का एक ही उपदेश है कि किसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व की हत्या मत करो। उनके ऊपर अपनी सत्ता मत जमाओ। उन्हें गुलाम मत बनाओ, उन्हें कष्ट मत दो। यही धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और विवेकी पुरुषों ने बताया है। इस प्रकार जैन आगमों में पौरुषेयता और अपौरुषेयता का सुन्दर समन्वय हुआ है। 1. यद् भगवद्धिः सर्वज्ञैः सर्वदर्शिभिः परमर्षिभिरर्हद्धिस्तत्स्वाभाव्यात् परमशुभस्य च प्रवचनप्रतिष्ठापनफलस्य तीर्थकरनामकर्मणोऽनुभावादुक्तं, भगवच्छिष्यैरतिशयवद्भिस्तदतिशयवाग्बुद्धिसम्पन्नैर्गणधरैर्दृब्धं तदङ्गप्रविष्टम्। - तत्त्वार्थ स्वोपज्ञभाष्य १/२० 2. तवनियमनाणरुक्खं आरूढो केवली अमियनाणी। तो मुयइ नाणवुद्धिं भवियजणविबोहद्वाए ।। तं बुद्धिमएण पडेण गणहरा गिहिउं निरवसेसं । - आवश्यकनियुक्ति गा० ८९-९० 3. (क) समवायांग-द्वादशांग परिचय (ख) नन्दीसूत्र, सूत्र ५७ 4. बृहत्कल्पभाष्य २०२-२०३ 5. (क) आचारांग अ० ४ सूत्र १३६ (ख) सूत्रकृतांग २/१/१५, २/२/४१ 6. अन्ययोगव्यच्छेदिका ५ आ. हेमचन्द्रसूरीश्वरजी.
SR No.005768
Book TitleSthanang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages484
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_sthanang
File Size12 MB
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