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श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ प्रदेशार्थता, अवगाहनार्थता, स्थिति, कृष्णादि वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, ज्ञान और दर्शन इन दश दृष्टियों से विचारणा की गयी है। विचारणा का क्रम इस प्रकार है- प्रश्न किया गया कि नारक जीवों की कितनी पर्यायें हैं? उत्तर में कहा कि नारक जीवों की अनन्त पर्यायें हैं। इसमें संख्यात, असंख्यात और अनन्त के भेद भिन्न भिन्न दृष्टियों की अपेक्षा से हैं। द्रव्यदृष्टि से नारक संख्यात हैं, प्रदेशदृष्टि से असंख्यात प्रदेश होने से असंख्यात हैं और वर्ण, गंधादि व ज्ञान, दर्शन आदि दृष्टियों से उनकी पर्यायें अनन्त हैं। इस प्रकार सभी दंडकों और सिद्धों की पर्यायों का स्पष्ट निरूपण इस पद में किया है।
आचार्य मलयगिरि ने प्रस्तुत दश दृष्टियों को संक्षेप में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार दृष्टियों में विभक्त किया है। द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता को द्रव्य में, अवगाहना को क्षेत्र में, स्थिति को काल में और वर्णादि व ज्ञानादि को भाव में समाविष्ट किया है।"
द्रव्य की दृष्टि से वनस्पति के अतिरिक्त शेष २३ दंडक के जीव असंख्य हैं और वनस्पति के अनन्त । पर्याय की दृष्टि से सभी २४ दंडक के जीव अनन्त हैं। सिद्ध द्रव्य की दृष्टि से अनन्त हैं।
प्रथम पद में अजीव के जो भेद किये हैं, वे प्रस्तुत पद में भी हैं । अन्तर यह है कि वहाँ प्रज्ञापना के नाम से हैं और यहाँ पर्याय के नाम से। पुद्गल के यहाँ पर परमाणु और स्कन्ध ये दो भेद किये हैं। स्कन्धदेश और स्कन्धप्रदेश को स्कन्ध के अन्तर्गत ' ले लिया है। रूपी अजीव की पर्यायें अनन्त हैं। उनका द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की दृष्टि
इसमें विचार किया है। परमाणु, द्विप्रदेशी स्कन्ध यावत् दशप्रदेशी स्कन्ध और संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी स्कन्धों की पर्यायें अनन्त हैं। स्थिति की अपेक्षा परमाणु और स्कन्ध दोनों एक समय की, दो समय की स्थिति से लेकर असंख्यातकाल तक की स्थिति वाले होते हैं। स्वतंत्र परमाणु अनंतकाल की स्थिति वाला नहीं होता परन्तु स्कन्ध अनन्तकाल की स्थिति वाला हो सकता है। एक परमाणु अन्य परमाणु से स्थिति की दृष्टि से हीन, तुल्य या अधिक होता है। अवगाहना की दृष्टि से द्विप्रदेशी से लेकर यावत् अनन्तप्रदेश स्कन्ध, आकाश के एक प्रदेश से लेकर असंख्यातप्रदेश तक का क्षेत्र रोक सकते हैं परन्तु अनन्तप्रदेश नहीं, क्योंकि पुद्गल द्रव्य लोकाकाश में ही है और लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात ही हैं। अलोकाकाश अनन्त हैं पर वहां पुद्गल या अन्य किसी द्रव्य की अवस्थिति नहीं है।
परमाणुवादी न्याय-वैशेषिक परमाणु को नित्य मानते हैं और उसके परिणाम पर्याथ नहीं मानते। जबकि जैन परमाणु को भी परिणामीनित्य मानते हैं। परमाणु स्वतंत्र होने पर भी उसमें परिणाम होते हैं, यह प्रस्तुत पद से स्पष्ट होता है। परमाणु स्कन्ध रूप में और स्कन्ध परमाणु रूप में परिणत होते हैं, ऐसी प्रक्रिया जैनाभिमत है। गति और आगति चिन्तन
छठा व्युत्क्रांतिपद है। इसमें जीवों की गति और आगति पर विचार किया गया है। सामान्यतः चारों गतियों में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त उपपात - विरहकाल और उद्वर्तना- विरहकाल है। उन गतियों के प्रभेदों पर चिन्तन करते हैं तो उपपात विरहकाल और उद्वर्तना- विरहकाल प्रथम नरक में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त का है। सिद्धगति में उपपात है, उद्वर्तना नहीं है। इसी प्रकार अन्य गतियों में भी जानना चाहिए। पांच स्थावरों में निरन्तर उपपात और उद्वर्तना है। इसमें सान्तर विकल्प नहीं है। इसके पश्चात् एक समय में नरक से लेकर सिद्ध तक कितने जीवों का उपपात और उद्वर्तन है, इस पर चिन्तन किया गया है। साथ ही नारकादि के भेद-प्रभेदों १. प्रज्ञापना टीका, पत्र १८१ अ. २. प्रज्ञापना टीका, पत्र २०५
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