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श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १
भगवतीसूत्र में प्रदेशदृष्टि से अल्पबहुत्व को लेकर सुन्दर वर्णन है। वहाँ पर यह प्रतिपादित किया गया है कि अन्य द्रव्यों की अपेक्षा धर्म और अधर्म द्रव्य सबसे न्यून हैं। वे असंख्यप्रदेशी हैं और लोकाकाश तक सीमित हैं। धर्म और अधर्मद्रव्य की अपेक्षा जीवद्रव्य के प्रदेश अनन्तगुणा अधिक हैं, कारण यह है कि धर्म और अधर्म द्रव्य एक एक ही हैं, परन्तु जीवद्रव्य अनन्त हैं और हर एक जीवद्रव्य के असंख्यात प्रदेश हैं। जीवद्रव्य के प्रदेशों की अपेक्षा पुद्गलद्रव्य के प्रदेश अनन्तगुणा अधिक हैं, क्योंकि प्रत्येक जीव के एक-एक आत्मप्रदेश पर अनन्तानन्त कर्मों की वर्गणायें हैं, जो पुद्गल हैं। पुद्गल की अपेक्षा भी काल के प्रदेश अनन्तगुणा अधिक हैं, क्योंकि प्रत्येक जीव और पुद्गल की वर्तमान, भूत और भविष्य की अपेक्षा अनन्त पर्यायें हैं। कालद्रव्य की अपेक्षा भी आकाशद्रव्य के प्रदेशों की संख्या सबसे अधिक है। अन्य सभी द्रव्य लोक तक ही सीमित हैं, जबकि आकाशद्रव्य लोक और अलोक दोनों में स्थित है।
प्रश्न यह उद्बुद्ध हो सकता है कि लोकाकाश असंख्यातप्रदेशी है। उन असंख्यातप्रदेशी लोकाकाश में अनन्तानत पुद्गल परमाणु किस प्रकार समा सकते हैं? एक आकाशप्रदेश में एक पुद्गलपरमाणु ही रह सकता है तो असंख्यातप्रदेशी लोकाकोश में असंख्य पुद्गलपरमाणु ही रह सकते हैं।
उत्तर में निवेदन है कि एक आकाश प्रदेश में अनन्त परमाणु रहें, उसमें किसी भी प्रकार की बाधा नहीं है। क्योंकि परमाणु और परमाणुस्कन्ध में विशिष्ट अवगाहन शक्ति रही हुई है। यहाँ पर अवगाहन शक्ति का अर्थ हैदूसरों को अपने में समाहित करने की क्षमता। जैसे-आकाश द्रव्य अपने अवगाहन गुण के कारण अन्य द्रव्यों को स्थान देता है, वैसे ही परमाणु और स्कन्ध भी अपनी अवगाहनशक्ति के कारण अन्य परमाणुओं और स्कन्धों को अपने में स्थान देते हैं। यथा-एक आवास में विद्युत का एक बल्ब अपना आलोक प्रसारित कर रहा है, उस आवास में अन्य हजार बल्ब लगा दिये जायें तो उनका भी प्रकाश उस आवास में समाहित हो जायेगा। इसी प्रकार शब्दध्वनि को भी ले सकते हैं। जैन दृष्टि से एक आकाशप्रदेश में अनन्तानन्त ध्वनियाँ रही हुई हैं। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि प्रकाश और ध्वनि पौद्गलिक होने से मूर्त हैं। जब मूर्त में भी एक ही आकाशप्रदेश में अनन्त परमाणु के स्कन्ध रह सकते हैं तो अमूर्त के लिए तो प्रश्न ही नहीं। चाहे पुद्गलपिण्ड कितना भी घनीभूत क्यों न हो, उसमें दूसरे अन्य अनन्त परमाणु और पुद्गलपिण्डों को अपने में अवगाहन देने की शक्ति रही हुई है। बहुत कुछ यह सम्भव है कि परमाणु के उत्कृष्ट आकार की दृष्टि से यह बताया गया हो कि एक आकाशप्रदेश एक परमाणु के आकार का है। गति की दृष्टि से जघन्य गति एक परमाणु के काल की है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो एक परमाणु जितने काल में एक आकाश प्रदेश से दूसरे आकाश प्रदेश में पहुँचता है, वह एक समय है, जो काल का सबसे छोटा विभाग है। उत्कृष्ट गति की दृष्टि से एक परमाणु एक समय में चौदह राजू लोक की यात्रा कर लेता है। . आधुनिक युग में विज्ञान ने अत्यधिक प्रगति की है। उसकी अपूर्व प्रगति विज्ञों को चमत्कृत कर रही है। विज्ञान ने भी दिक् (स्पेस्), काल (Time) और पुद्गल (Matter) इन तीन तत्त्वों को विश्व का मूल आधार माना है। इन तीन तत्त्वों के बिना विश्व की संरचना सम्भव नहीं। आइन्सटीन ने सापेक्षवाद के द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि दिक् और काल ये गतिसापेक्ष हैं। गतिसहायक द्रव्य, जिसे धर्मद्रव्य कहा गया है। विज्ञान ने उसे 'ईथर' कहा है। आधुनिक अनुसंधान के पश्चात् ईथर का स्वरूप भी बहुत कुछ परिवर्तित हो चुका है। अब ईथर भौतिक नहीं, अभौतिक तत्त्व बन गया है, जो धर्मद्रव्य की अवधारणा के अत्यधिक सन्निकट है। पुद्गल तो विश्व का मूल आधार है ही, भले ही वैज्ञानिक उसे स्वतंत्र द्रव्य न मानते हों किन्तु वैज्ञानिक धीरे-धीरे नित्य नूतन अन्वेषणा कर १. भगवतीसूत्र-१३५८ .32 -