________________
'प्रीतिरति अव्य'
નિત્યાનંદવિજયગણિ
श्री संघ तथा विद्वजगत के सद्भाग्य से मुझे कुछ समय पूर्व पूज्यपाद परमोपकारक न्यायविशारद महामहोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज की अद्यावधि अज्ञात एक लघुकृति प्राप्त हुई है । इस रचना की प्राप्ति भी पूज्यश्रीजी की तीसरी निर्वाण शताब्दी वर्ष के अन्तर्गत मुझे हुई और उसका अल्प-स्वल्प परिचय करवाने का सौभाग्य मिला । तदर्थ में तथा प्रकार की धन्यता का अनुभव करता हूँ।
समग्र रचना में प्रस्तुत कृति का नामका पता नहीं चलता, पूज्यपाद उपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज ने अनेक रचनाओं का प्रारम्भ किया था परन्तु अन्यान्य अनेक कारणों से उन रचनाओं को पूर्ण कर पाने का उन्हें समय नहीं मिला, इस कारण उनकी कई रचनाएं अपूर्ण मिलती हैं । इसी तरह प्रस्तुत रचना को भी वे आरंभ करके पूर्ण नहीं कर सके। यह बात रचना को देखकर मुझे सहज भाव से ज्ञात हुई है।
यद्यपि प्रस्तुत कृति का नाम मूल रचना में उपलब्ध नहीं है किन्तु इस रचना की चार पत्रात्मक हस्तलिखित प्रति के प्रथम पत्र की दूसरी पृष्टि के मार्जिन में 'गुरुवर्णने प्रीतिरतिकाव्यं' तथा दूसरे और तीसरे पत्रक की प्रथम पृष्टि के मार्जिन में 'प्रीतिरतिकाव्यं' ऐसा शीर्षक लिखा है । अतः कर्ता को प्रस्तुत रचना का 'प्रीतिरतिकाव्य' नाम अभिप्रेत है ।
प्रस्तुत समग्र रचना कर्ता ने स्वहस्त से लिखी है। इतना ही नहीं मार्जिन में जो कृति का नाम लिखा है, वह भी कर्ता के हस्ताक्षर में हैं। अतः इस रचना का नाम 'प्रीतिरतिकाव्य' सुस्पष्ट
है ।
अंत में लेखक के रूप में कर्ता ने स्वयं का नाम नहीं लिखा । अतः यह रचना कर्ता के हस्त से लिखी गई है, ऐसा निर्णय मैं नहीं कर पाता, लेकिन कर्ता के स्वहस्त से लिखी हुई अनेक प्रतियां उपलब्ध हैं । उनके आधार से पं. श्री अमृतलाल भोजक तथा पं. श्री लक्ष्मणभाई भोजक
मुझको कर्ता के हस्ताक्षर की प्रतीति कराई । इसलिए यहां मैंने स्पष्ट लिखा है । उन दोनों भोजक बंधुओं ने दिवंगत पूज्यपाद आगमप्रभाकर मुनि भगवंत श्री पुण्यविजयजी महाराज के कार्यों में चिरकाल पर्यंत सहकार दिया है। अतः उनसे अपने ज्ञानभंडारों एवं हस्तलिखित ग्रंथों के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की जानकारी मिलती है।
प्रस्तुत रचना के आदि से एक सौ आठ पद्य पर्यन्त प्रीति और रति का संवाद है । सो इस