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૧. લુવાદી ચયમાં આવેલા નિર્ણયો સ મથક શ્રી અર્હથિભાસ્કર 1.
૧૪૩ था जो ज्ञान और चारित्र की दृष्टि से बहुत निम्नस्तर में थे। अतः इस अशास्त्रीय अज्ञानमूलक मध्यागत परम्परा को तत्काल ही समाप्त कर देना चाहिये।
(२) "क्षये पूर्वा तिथिः कार्या वृद्धौ कार्या तथोतरा" यह आचार्य उमास्वातिका 'वचन क्षोण और वृद्ध पर्वतिथियों की आराधना का दिन निश्चय कराने के लिये प्रवृत्त है और वह निश्चय पर्वतिथियों के टिप्पणोक्त क्षय और वृद्धि को सत्य मानने पर भी उपपन्न होता है अतः उस वचन की श्री सागरानन्दसूरि द्वारा की जानेवाली वह
माणिक, अशास्त्रीय व्याख्या नहीं माननी चाहिये जिससे तिथि-निर्णय के एक मात्र आधारभूत टिप्पण की मर्यादा का विनाश होता है।
(३) जैनशास्त्रों में कल्याणक तिथियों को भा पर्वतिथि और पूर्णिमा के समान उनकी आराध्यता भी मानी गयो है । अतः "क्षये पूर्वा" इत्यादि शास्त्रीय वचन जैसे अन्य क्षीण एवं वृद्ध पर्व तिथियों की आराधना के दिन का निश्चायक है वैसे ही क्षीण तथा वृद्ध कल्याणक तिथियों को भी आराधना के दिन का निश्चायक है।
(४) यह नियम जैनशास्त्रों की मान्य नहीं है कि पर्वतिथियों का प्रवेश सूर्योदय के समय में ही होता है और जिस सूर्योदय के समय उनका प्रवेश होता है उसके अगले सूर्योदय-लमय में ही उनकी समाप्ति होती है किन्तु जैनशास्त्रों की मान्यता तो यह है कि जो पर्वतिथि जिस दिन समाप्त होती है, उस दिन सूर्योदय के समय से उस तिथि की आराधना का आरम्भ करना चाहिये और आराधनाऽऽरम्भ के बाद आने वाले प्रथम सूर्योदय के अनन्तर उस तिथि की आराधना की समाप्ति करनी चाहिये।
(५) जैन-टिप्पण का प्रचलन बन्द हो जाने के बाद से बैदिक-सम्प्रदाय में प्रचलित पञ्चाङ्ग के आधार पर ही सब तिथियों के प्रवेशादि-काल का निर्णय करना चाहिये यह जैन-जनता को जैन-शास्त्र का स्पष्ट आदेश है अतः उक्त पञ्चाङ्ग के विरुद्ध किसी भी तिथि के काल-परिवर्तन की कल्पना शास्त्रविरुद्ध अनाचार है।
(६) पञ्चाङ्ग में जिस दिन जिस पर्वतिथि को औदयिकी बताया गया हो उस पर्वतिथि की आराधना उसी दिन करनी चाहिये-यही जैनशास्त्रों की अभ्रान्त आज्ञा है अतः इसके विपरीत आचरण करना पाप है।
(७) क्षीण पर्व-तिथि की क्षय के दिन और वृद्ध पर्वतिथि की दूसरे दिन आराधना करने का जो आदेश जैनशास्त्रों में प्राप्त होता है उसका मूल उस उस दिन उस उस तिथि की समाप्ति ही है।
(4) " तत्त्वतरङ्गिणी" आदि सर्वमान्य जैन-ग्रन्थों में इस बात का असन्दिग्ध रूपसे प्रतिपादन किया गया है कि एक दिन भी दो पर्व-तिथियों का अस्तित्व, व्यवहार और आराधना समुचित है।
(९) पूर्णिमा और अमावास्या की अपेक्षा चतुर्दशी का, तथा भाद्रपद-शुक्ल-पञ्चमी की अपेक्षा भाद्र-पद-शुक्ल चतुर्थी का प्राधान्य एवं महत्त्व बहुत अधिक है अतः टिप्पणोक्त मुख्य काल में ही उनकी आराधना का अनुष्ठान उचित है, इसलिये पूर्णिमा वा अमा"वास्या के क्षय के प्रसंग में त्रयोदशी को, तथा वृद्धि के प्रसंग में पहली र्णिमा वापू
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