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૧..લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયને સમર્થક શ્રી અર્ધત્તિથિભાસ્કર ]
૧૪૧ के क्षय और वृद्धि के प्रसंग में उनको आराधना की व्यवस्था "क्षये पूर्वा" इत्यादि “पूर्वार्ध से ही मान्य है।
इस प्रसंग में इस बात को ध्यान में रखना परमावश्यक है कि क्षयप्राप्त अन्य पर्वतिथियों के समान ही क्षयप्राप्त कल्याणक तिथियों की भी आराधना उनमें औदयिकीत्व का स्थापन करके ही माननी होगी। और यदि क्षीण कल्याणक तिथियों के विषय में अन्य क्षोण पर्वतिथियों से भिन्न प्रकार स्वीकार करेंगे अर्थात् औदयिकीत्व के विना ही आराधना मानेगे-तो पहले दिन सूर्योदय के कुछ ही काल बाद से शेष सारे अहोरात्र भर और दसरे दिन सूर्योदय काल के किश्चिन्मात्र बाद तक ही रहने वाली कल्याणक तिथि के विषय में भी उक्त प्रकार की अन्य पर्वतिथि से भिन्न प्रकार का ही अवलम्बन करना उचित होगा । फलतः तथोक्त कल्याणक तिथि की आराधना दूसरे दिन न होकर पहले ही दिन प्राप्त होगी क्योंकि पहले दिन उसका अस्तित्व अधिक काल तक है। किन्तु जैन समाज को यह स्वीकृत नहीं है । अतः अक्षीण कल्याणक-तिथियों की आराधना अक्षीण अन्य पर्वतिथियों के समान ही जैसे मान्य है वैसे ही क्षीण-कल्याणक तिथियों की भी आराधना को क्षीण अन्य पर्वतिथियों के समान ही मानना उचित है। ऐसी स्थिति में "क्षये पूर्वा तिथिः कार्या' इस वचन को यदि कल्याणक तिथियों में लागू नहीं माना जायगा तो क्षीण कल्याणक तिथियों की आराधना अनुपपन्न हो जायगी।
इसी प्रकार "वृद्धौ कार्या तथोतरा” इस वचन को भी यदि वृद्ध कल्याणक तिथियों की आराधना का व्यवस्थापक न माना जायगा तो उन तिथियों की दूसरे दिन ही आराधना करने का जो नियम जैनजनता में प्रचलित है वह निराधार हो जायगा। फलतः कभी पहले दिन, कभी दूसरे दिन और कभी दोनों दिन वृद्ध कल्याणक तिथि की आराधना में जन-प्रवृत्ति की आपत्ति अपरिहार्य रूप से प्राप्त होगी। "तत्त्वतरङ्गिणी" के पाँचवें पृष्ठ में यह जो उल्लेख मिलता है-कि पूर्णिमा और कल्याणक तिथि की आराध्यता में कोई भेद नहीं है, उसका समर्थन उपर्युक्त बात को स्वीकार करने पर ही होता है, अतः वह भी उसमें साक्षी है।
(५) पाँचवें कारण से भी श्रीसागरानन्दसूरि की यह बात कि "क्षये पूर्वा" इत्यादि वचन कल्याणक-तिथि-विषयक नहीं है, नहीं सिद्ध हो सकती क्योंकि जैन-शास्त्र के किसी भी प्रामाणिक ग्रन्थ में ऐसा उल्लेख नहीं मिलता जिससे यह प्रकट हो कि उक्त वचन कल्याणक-तिथि-परक नहीं है और न कहीं उक्त वचन का ऐसा कोई प्रामाणिक व्याख्यान ही मिलता है जिसमें उसे कल्याणक से अतिरिक्त पर्वतिथिमात्र-विषयक माना गया हो ।
(६) छठे प्रकार से भी श्रीसागरानन्दसूरि के एतत्सम्बन्धी अभिप्राय की पुष्टि नहीं हो सकती, क्योंकि चौथे कारण के आलोचन-प्रसंग में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि केवल श्रीमहावीर के निर्वाण तिथि की ही आराधना को लोकानुसार करने का आदेश जैनशास्त्रों ने दिया है।
यह भी बात इस प्रसंग में स्मरण रखने योग्य है कि यदि कल्याणक तिथियों के द्वितीया, अष्टमी आदि तिथियों की अपेक्षा अप्रधान होने के कारण कल्याणक तिथियों
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