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________________ ૧૧૦ [ જૈન દષ્ટિએ તિથિદિન અને પર્વારાધન-સંગ્રહવિભાગ किन्तु "क्षये पूर्वा" इत्यादि वचन के अनुसार क्षीण और वृद्ध भी पर्वतिथि अक्षीण और अवृद्ध पर्वतिथि के समान अपनी निवृत्ति होने के दिन आराधनार्थ उपादेय है। इस प्रकार मत-मेद के मर्म पर ध्यान न देकर उभयसम्मत बात को केवल श्रीसागरानन्दसूरि का मत बताने से प्रतीत होता है कि पताकाकार ने दोनों मतों का सन्तोषजनक रूप से अध्ययन नहीं किया है । ऐसी स्थिति में उन्हें अपनी “पताका" को समझदारों की प्यारी हो सकने की आशा का त्याग कर देना चाहिये। “पताका" के २६वे और सत्ताईसवें पृष्ठ में पताकाकार को भी प्रसंगवश कहना पड़ा है कि "सूर्यप्रक्षप्ति" और " ज्योतिष्करण्डक" आदि प्रामाणिक जैनग्रन्थों के अनुसार युगान्त में द्वितीयाषाढ की पूर्णिमा का क्षय अवश्य होता है पर "निशीथचूर्णि" में आषाढ-पूर्णिमा के नाम-ग्रहणपूर्वक निर्देश से समझना चाहिये कि आराधना में उसका भी क्षयाभाव ही है। ___ यहाँ हम पताकाकार से पूछना चाहते हैं कि क्या उक्त कथन से पर्वतिथियों के क्षय और वृद्धि के न होने की श्रीसागरानन्दसूरिसम्मत बातका समर्थन होता है ? क्या उक्त कथन उन के मतरूपी बालांकुर पर अतितप्त जलधारा के समान नहीं है ? " तदुपादानेन च आराधनायाँ तस्याः क्षयाभावः प्रतीयते" इस वाक्य से-पर्वतिथि वस्तुगत्या क्षीण होने पर भी आराधना में अक्षीणवत् ग्राह्य होती है-यह कहकर क्या पताकाकार ने अपने समर्थनीय पक्ष पर निरवरोध प्रहार करने का द्वार नहीं खोल दिया है ? पताकाकार के इस ग्रन्थ से यह बात अति स्पष्ट हो जाती है कि यद्यपि किसी कारण-विशेष से पताकाकार श्रीसागरानन्दसरि के अतात्त्विक पक्ष को वरण करने के लिये अपनी बुद्धि को प्रेरित करते हैं किन्तु वह तात्त्विक पक्ष का ही वरण करने के सुप्रसिद्ध बुद्धि-स्वभाव के अनुसार उनकी प्रेरणा न मानकर श्रीरामचन्द्रसूरि के तात्त्विक पक्ष का ही पल्ला पकडने को उतावली होती जान पडती है, क्यों कि पर्वतिथि वस्तुतः क्षीण होने पर भी आराधना में अक्षीण ही मानी जाती है-यह तो श्रीरामचन्द्रसूरि का ही पक्ष है । "सेनप्रश्न" के तृतीय उल्लास में श्रीहीरविजयसूरि का निर्वाणपौषधादि एकादशी की वृद्धि के प्रसंग में कब करना चाहिये, इस प्रश्न के उत्तर में औदयिकी एकादशी को करने की जो व्यवस्था की गई है उसके आधार पर “पताका" के सत्ताईसवे पृष्ठ में पताकाकारने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि एकादशी की वृद्धि नहीं होती। उनका आशय यह जान पडता है कि यदि एकादशी दो दिन औदयिकी होती तो " औदयिकी एकादशी में श्री हीरविजयसूरि का निर्वाणपौषधादि करना चाहिये" यह उत्तर नहीं दिया जा सकता था, क्यों कि एकादशी के दो दिन औदयिकी मानने पर इससे प्रश्न का समाधान नहीं होता। पर पताकाकार से हम पूछना चाहते हैं कि यदि एकादशी एक ही दिन औदयिकी होतो भी उक्त उत्तर से प्रश्न का समाधान कैसे होगा ? कारण कि उत्तरदाता की दृष्टि में यदि एकादशी केवल दूसरे ही दिन औदयिकी हो तो भी वह इस बात को उत्तर देते समय व्यक्त तो नहीं करता अतः उस प्रकार के उत्तर से ऐसे प्रश्नकर्ता का, जिसे पञ्चाङ्ग में एकादशी दो दिन औदयिकी मिली है, मनः समाधान नहीं हो सकता । इस लिये उक्त उत्तर सुनने के बाद प्रश्नकर्ता को अपनी वृद्धि से उत्तरकर्ता का यह तात्पर्य-निश्चय करना होगा कि जिस दिन एकादशी औदयिकी ही हो अर्थात् अस्तकाल में न हो, उसी दिन एकादशी की वृद्धि के प्रसंग में, श्री हीरविजयसूरि का निर्वाणपौषधादि करना चाहिये। तो इस प्रकार से उक्त ग्रन्थ को देखने पर यह स्पष्ट है कि उससे यह अनुमान नहीं किया जा सकता कि एकादशी की वृद्धि उत्तरदाता को मान्य नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005673
Book TitleTithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Pravachan Pracharak Trust
PublisherJain Pravachan Pracharak Trust
Publication Year1977
Total Pages552
LanguageGujarati, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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