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| જૈન દષ્ટિએ તિથિરિન અને પર્વરાધન-સંગ્રહવિભાગ पर्वतिथि के पर्वतिथित्व का निषेध होगा न कि औदयिकीत्व का, तो फिर इस स्थिति में वृद्धा पूर्णिमा से युक्त पूर्व-दिन को चतुर्दशी के औदयिकीत्व की कल्पना जो पताकाकार ने की है वह न हो सकेगी क्योंकि एक दिन दो तिथियों का सूर्योदयकाल में अस्तित्व रूप औदयिकीत्व किसी को भी मान्य नहीं है। इस आपत्ति के समाधान में यह कहना कि पर्वतिथित्व
औदयिकीत्व को लेकर ही निवृत्त होता है-ठीक नहीं है, क्योंकि औदयिकीत्व पर्वतिथित्व का व्याप्य नहीं है। यदि कहें कि औदयिकीत्व पर्वतिथित्व का व्याप्य न हो पर पूर्णिमात्व आदि अन्यतम धर्म से विशिष्ट औदयिकीत्व तो व्याप्य है, अतः पर्वतिथित्व उस विशिष्ट औदयिकीत्व को लेकर निवृत्त होगा, तो यह भी युक्त नहीं है, क्योंकि उक्त विशिष्ट औदयिकीत्व भी पर्वतिथित्व का व्याप्य नहीं हो सकता, अन्यथा वृद्धपूर्णिमा आदि में पहले दिन भी उक्त विशिष्ट औदयिकीत्व के रहने से उस दिन भी पर्वतिथित्व की नियत प्राप्ति होने के कारण पाक्षिक प्रवृत्ति न होने से उक्त वचन को पर्वतिथित्व की नियामकता न हो सकेगी।
पताका के तेरहवें पृष्ठमें पताकाकार ने कहा है कि किसी भी पर्व तिथि का क्षय वा वृद्धि नहीं होती, अतः टिप्पण में क्षीणतया निर्दिष्ट पूर्णिमा वा अमावास्या जब "क्षये पूर्वा तिथिः कार्या” इस वचन से टिप्पणोक्त क्षयदिन में औदयिकी बनती है तब एक दिन दो तिथियों के औदयिकी न हो सकने के कारण उस दिन चतुर्दशी अनौदयिकी हो जाती है, किन्तु वह भी पर्व तिथि होने के नाते अनौदयिकी रह नहीं सकती, अतः वह त्रयोदशी के दिन औदयिकी हो जाती है और त्रयोदशी को अनौदयिकी बन जाना पड़ता है।
इस प्रसङ्ग में हम जानना चाहते हैं कि पर्व तिथि का क्षय नहीं होता-इस कथन का क्या तात्पर्य है ? जिस तिथि को जैन शास्त्रों में पर्व तिथि कहा गया है उसका सूर्योदय-काल में कभी अभाव नहीं होता? अथवा टिप्पण जिस पर्व तिथि का सूर्योदय-काल में अभाव बतलाता है उसकी आराधना का लोप नहीं होता बल्कि उस तिथि से युक्त दिन को ही उसको आराधना कर्तव्य होती है ? इसी प्रकार पर्व तिथि की वृद्धि नहीं होती इस कथन के भी तात्पर्य की जिज्ञासा होती है कि क्या पर्व तिथि का दो सूर्योदय के साथ सम्बन्ध नहीं होता? अथवा टिप्पण में जिस पर्व तिथि का दो सूर्योदय के साथ सम्बन्ध उल्लिखित रहता है उसकी आराधना दो दिन वा पूर्व दिन नहीं होती किन्तु दूसरे ही दिन होती है ? '
इन विकल्पों में ये विकल्प कि पर्व तिथि का सूर्योदय-काल में अभाव वा दो सूर्योदय के साथ सम्बन्ध नहीं होता, संगत नहीं हैं, क्योंकि इन अर्थों का समर्थन करने वाला एक भी वचन जैनशास्त्रों में प्राप्त नहीं होता।
यदि कहें कि टिप्पण में क्षीणतया निर्दिष्ट पर्व-तिथि के औदयिकीत्व का और वृद्धतया निर्दिष्ट पर्व तिथि के दूसरे दिन मात्र औदयिकीत्व का प्रतिपादन करनेवाला"क्षये पूर्वा तिथि: कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरा" यह शास्त्र-वचन ही उक्त अर्थ में प्रमाण है, तो यह कथन ठीक नहीं है, क्यों कि यह वचन क्षय और वृद्धि का मुखापेक्षी होने से अपने उत्थापक क्षय और वृद्धि के अभाव का साक्षी नहीं बन सकता क्यों कि ऐसा होने पर उपजीव्य-विरोध रूप दोष की आपत्ति होगी, इस पर यदि यह कहें कि वास्तविक क्षय और वृद्धि उस वचन के उपजीव्य-उत्थापक नहीं हैं किन्तु उनका शानमात्र उपजीव्य है अतः क्षय और वृद्धि का अपहरण करने पर भी उनके ज्ञान का अपहरण न करने से उक्त वचन में उपजीव्य-विरोधकता की आपत्ति न होगी, तो यह कथन भी युक्त नहीं है, क्योंकि ज्ञान में सविषयकत्व का नियम होने से क्षय और वृद्धि रूप विषय का अपहरण होने पर उनके ज्ञान का भी अपहरण अनिवार्य है।
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