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૧. લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયને સમર્થક શ્રી અસ્તિથિભાસ્કર ] सूचित किया गया हेतुहेतुमद्भाव भी दुर्बोध तथा दुर्घट है।
इसी पृष्ठ की चौदहवीं पंक्ति में “ आराधनस्यैकैव तिथिरपेक्षिता सा पूर्वा परा वा" इस वाक्य से जो सन्देह प्रदर्शित किया गया है, वह आराधनाऽपेक्षित तिथि को धर्मी और पूर्वात्व तथा परात्व को प्रकार बनाकर अथवा पूर्वा और परा को धर्मी और आराधनाऽपेक्षिततिथित्व को प्रकार बना कर नहीं उपपन्न हो सकता, कारण कि वृद्धा पर्व तिथि में पूर्वसूर्योदयसम्बन्ध रूप पर्वात्व और उत्तरसर्योदय-सम्बन्धरूपपरात्व दोनों ही टिप्पण से निश्चित हैं तथा वृद्धा अपर्व तिथि में उन दोनों धर्मोंका अस्तित्व होने से उनमें सहानवस्थान रूप विरोध भी नहीं है और पूर्वा तथा परा वृद्धा तिथि में भेद भी नहीं है।
संशय उसी ज्ञान को माना जाता है जिसमें एक आश्रय धर्मी रूप से और परस्पर-विरोधी दो धर्म प्रकार रूप से विषय हों-जैसे 'अयं स्थाणुर्नवा' । अथवा परस्पर-विरोधी दो धर्म धर्मी रूप से और एक आश्रय प्रकार रूप से भासित हों, जैसे-'अत्र स्थाणुत्वं तदभावो वा। अथवा परस्पर भिन्न दो पदार्थ धर्मी रूप से और उन दोनों में से एकमात्र में रहनेवाला धर्म प्रकार रूप से भासमान हो, जैसे- 'देहो वा ज्ञानवान् देहभिन्नो वा, अथवा उक्त धर्म धर्मी रूप से और उक्त दो पदार्थ प्रकार रूप से भासित हों, जैसे-'देहे वा ज्ञानं देहभिन्ने वा ।' "सा पूर्वा परा वा” यह शान उक्त चार प्रकारों में किसी में अन्तर्भूत नहीं होता, अतः इसे संशय कहना अयुक्त है। "वृद्धा तिथि को पहले दिन पर्व-तिथित्व है वा दूसरे दिन” यह सन्देह भी नहीं बन सकता, क्योंकि वृद्धा तिथि में दोनों दिन पर्वतिथित्व निश्चित है, केवल उसकी आराधना पहले दिन न मानकर दूसरे दिन मानी जाती है।
'पताका' के तेरहवें पृष्ठ की तेरहवीं पंक्ति में पताकाकार ने " सत्यपि तिथेर्दिनद्वयेऽप्योदयिकीत्वे" इस वाक्य से जो वृद्धा तिथि को दोनों दिन औदयिकी कहा है, वह असंगत है, क्योंकि वह श्रीसागरानन्दसूरि के इस मत का-कि पर्वतिथि की वस्तुतः वृद्धि नहीं होती, वह दूसरे दिन मात्र ही औदयिकी होती है- समर्थन करने को प्रवृत्त हैं, यदि कहें कि यह बात टिप्पण की दृष्टि से कही गई है न कि सिद्धान्त की दृष्टि से अतः उक्त वचन की असंगति नहीं है, तो यह भी युक्त नहीं है, क्योंकि उन्होंने “ वृद्धौ कार्या” इस वचन की मध्यस्थ-कथित औदयिकीत्व-नियामकता का खण्डन कर उसे पर्वतिथित्व का नियामक माना है। __ सब से विचित्र बात तो यह है कि पताकाकार ने बारहवें पृष्ठ की पांचवीं पंक्ति में "वृद्धौ कार्या" इस वचन को दूसरे दिन वृद्धा पर्वतिथि के औदयिकीत्व का नियामक माना है, फिर तेरहवें पृष्ठ की ग्यारहवीं पंक्ति में उसे पर्वतिथित्व का नियामक कहा है, उसके बाद इसी पृष्ठ की चौदहवीं पंक्ति में पक्षप्राप्ता द्वितीया पर्वतिथि का नियमन माना है और पन्द्रहवें पृष्ठ की पांचवीं पंक्ति में "क्षये पूर्वा” इस भाग को औदयिकी संज्ञा का विधायक मानकर वैरूप्य-भीत पताकाकार ने “वृद्धौ कार्या" इस भाग को औदयिकी संज्ञा का नियामक होने की स्थिति पैदा कर दी है। उनके इन विभिन्न कथनों से ज्ञात होता है कि उन्हें औदयिकीत्व, पर्वतिथित्व, पर्वतिथि और औदयिकी संज्ञा-इन शब्दों के अर्थ-भेद का ज्ञान नहीं है, फिर ऐसा व्यक्ति भी किसी बडे सम्प्रदाय के विवादग्रस्त धार्मिक प्रश्न पर निर्णय देने को लेखनी उठायेयह कितना बडा दुस्साहस है।
पताकाकार ने “वृद्धौ कार्याः” इस वचन की औदयिकीत्व-नियामकता का खण्डन कर उसे जो पर्वतिथित्व का नियामक माना है उस पर यह एक अप्रतीकार्य आपत्ति खडी होती है कि जब उक्त वचन पर्वतिथित्व का नियामक है तब उसके आधार पर पहले दिन वृद्धा
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