________________ (104) न्यूनाधिक मति दोषथी, मुझने हो ! मिच्छामिदुक्कडं होय. सु. 17 संघ रज मुज शीर चडो, हुं छोटो हो ! संघ चरणोनी रज, अवगुण भर्यो मुन आतमा, मत जाणो हो! मुजमां कशु धन सु० 18 मारी मने खबर नहीं, भव्या भव्य हो ! जाणो जगनाथ, तो पण घन जिम गानशू, मारे माथे हो ! प्रभु तारो हाथ, सु० 22 हजार दुर्जन नबला होवे, सबळो हो ! होवे एकन नाथ, . . कुण गंजे तारा दासने, तारे हो ! हजार छे हाथ. सु० 23 ज्ञानसुंदर गरीबडो, एकलडो हो ! पड्यो तुज पाय, बीजं शरणु कंइ नहीं, मारे तो हो ! तुं बापने माय ओगणीसे पंचोतरमे, सुखे हो सुरत चोमास, मेझरनामुं शरु कर्यु, पूर्ण कीg हो ! सिद्धाचल खास. सु० 25 -...--- कळश. . सीमंधर स्वामी अंतर जामी, मोक्ष कामी जग जयो, आगम संगे, मने चंगे, मेझर रंगे में लख्यो, नित्य वांचो हृदय जाचो, श्रद्धो साचो सुखमयो, रत्नपायो, ज्ञान गायो, सुख सवायो, शिवगयो. __ ढाळ 31 मी-पूर्णतामे बधा साधु के सरखा नथी थाता तो पण जे अमूल्य रत्नोनी अंदर काचना कटकाने तुरत जुदा पाडवानी जरुरत छे. पछे रत्न आप एथी प्रकाश करशे. मारी भावना दर्शावी छे भुलनी क्षमा याचना प्रदान करशे. इति. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org