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आबद्ध होते हुए भी संस्कृत काव्य का एक कारण आनन्दमय ही है। संस्कृत-त्रासदियों दुर्लभ गुण है।
के अभाव की यही दार्शनिक पृष्ठभूमि है, संभवतः आत्मदृष्टि एवं तत्त्वचिन्तन का जिसके प्रभाववश ही कालिदास ने दुष्यन्त ही यह प्रभाव था कि संस्कृत नाटककारों ने शकुन्तला को, भवभूति ने राम और सीता त्रासदियां नहीं लिखी। क्योंकि त्रास को तथा भास ने उदयन एवं वासवदत्ता को अथवा दुःख दार्शनिक दृष्टि से सत नहीं है चिरप्रतीक्षित, अनपाय-संश्रय सम्मिलन का सोपाधिक है । अज्ञान अथवा माया से बद्ध पात्र बनाया । विदेशी नाटककार इस जीव ही दुःखी होता है । वस्तुतः प्रत्येक दार्शनिक दृष्टि से अपरिचित एवं असंस्तुत दुःख के मूल में अज्ञान ही है । प्रियजन होने के ही कारण, यथार्थ के नाम पर की मृत्यु, अभियान की असफलता, आकांक्षा
पतन, पराजय, विनाश एवं प्रवञ्चना सरीखी का टूटना, अपमान, प्रत्याख्यान, दुराशा,
निषेधात्मक वृत्तियों (Negative tendeneis) कुण्ठा, वञ्चना दुःख के जितने भी सिद्धपीठ है
की संस्थापना करते रहे । यदि शेक्सपियर सब के मूल में अज्ञान ही तो है । विवेकी
का मैफबेथ कालिदास की ममतामय तूलिका व्यक्ति तो तत्त्वचित् होता है, परमहंस होता
के आयाम में बंधा होता तो निश्चय ही वह है, अतएव वह ऐसे सन्दर्भो में दुःखी नहीं विनाश की विभीषिका से बत गया होता । . होता३ । कर्मगति पर विश्वास करके तटस्थ यह तो एक सामान्य प्रवृत्ति की बात बन जाता है।
हुई, परन्तु प्रसंग चाहे शृंगार अथवा करुण का ४ जब दुःख सत् नहीं है तो उसका भाव हो, दृश्य चाहे विलासवनिका का हो अथवा होगा कैसे ? और जब सुख अथवा आनन्द पितृवन का ! संस्कृत कवियों की दार्शनिक दृष्टि असत् नहीं तो उसका अभाव भी कैसे सदैव सर्वत्र प्रभावी रही है । कालिदास का होगा । परब्रह्म परमेश्वर का तो स्वरूप ही तो सारा कवित्व ही जैसे दर्शन की पृष्ठहैं-सत् चित् एवं आनन्द ! वही परब्रह्म भूमि पर आधारित है । ऐसा प्रतीत होता इस समूली सृष्टि का निमित्त कारण भी है, है मानो सम्पूर्ण शाकुन्तल ही 'प्रत्यभिज्ञा उपादान कारण भी, अतएव कर्मभूत सृष्टि भी दर्शन' की व्यावहारिक-व्याख्या मात्र है। कारणभूत ब्रह्म के ही स्वरूपानुकूल होने के शाकुन्तल की नान्दी में ही जल, अग्नि, ३. दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः ।।
- यजमान, सूर्य एवं चन्द्रमा, आकाश, पृथ्वी - सुखेषु विगतस्पृहः । तथा वायु के रूप में अवस्थित विराट' शिववीतरागभयक्रोधः स्थितधीमुनिरुच्यते ॥
है की कल्पना करके कालिदास अपनी दर्शन
गीता २/५६ दृष्टि का सूत्रपात करते है ५। शैव-दर्शन में ४. नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते ५. प्रत्यक्षाभिः प्रपन्नस्तनुभिरवतुवस्तासतः । गीता २,५६
भिरष्टाभिरीशः । शाकुन्तल १,१
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