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________________ (२) जैन-आगम साहित्य में वर्णित है सौधर्म इन्द्र का आसन डोला । अंत में कि द्वितीय तीर्थ कर अजितनाथ के समय सगर चक्रवती ने समुद्र को आगे बढ़ने से द्वितीय चक्रवर्ती सगर महाराज के ६० हजार रोक दिया । परिणामतः जहां तक समुद्र पुत्रों ने अष्टापद (कैलाश) तीर्थ की सुरक्षा प्रविष्ट हो गया था वहीं रुक कर रह गया। हेतु 'दण्ड रत्न' से चारों ओर परिखा खोद उक्त कथाओं में उन प्रश्नों का समाधान डाली थी । उस परिखा (खाई) को गंगा नदी ढंढा जा सकता है, जिनमें इस पृथ्वी से धारा (नहर) निकाल कर उसके जल से (दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र के आर्य खण्ड के एक भर दिया था । छोटे से भ-भाग) पर समद व गंगा आदि - कहा जाता है कि बाद में नागकुमार के नदियों के अस्तित्व को असंगत ठहराया कोप से वे सभी पुत्र ध्वस्त हो गए थे। गया है । इघर गंगा का जल प्रचण्ड वेग धारण करता (३) इस आय क्षेत्र के मध्यभाग के ऊंचे जा रहा था । सगर चक्नवी की आज्ञा से हो जाने से पृथ्वी गोल जान पड़ती है, और तब भगीरथ ने गंगा के प्रवाह को बांधने का उस पर चारों ओर समुद्र का पानी फैला प्रयास किया, और वापस उस जल को समुद्र हुआ है और बीच में द्वीप पैदा हो गए की ओर मोड़ दिया८ । है । इसलिए, चाहे जिधर से जाएं, जहाज ___एक अन्य कथा के अनुसार, एकबार नियत स्थान पर पहुंच जाते हैं । शत्रुजय तीर्थ की रक्षा का भाव चक्रवती (४) मध्यलोक का जो भाग ऊपर उठ सगर के मन में आया। उसने अपने अधीन गया था (जिसके ध्वस्त होने का निरूपण व्यन्तर देवों को कहा कि वे लवण समुद्र से जैन शास्त्रों में वर्णित हैं) वह भौतिक व नहर ले आवें । देवी शक्ति से उस समुद्र का पौद्गलिक ही है, और वह इसी पृथ्वी के आसपास के क्षेत्र से निकला होगा । जहाँ जल शत्रुजय पर्वत तक आया, किन्तु मार्ग में पड़ने वाले अनेक देशों व क्षेत्रों के लिए जहां से वह भौतिक-स्कन्ध निकला वहां वहां विनाशकारी सिद्ध हुआ । इस महाविनाश से MP की जमीन सामान्य स्थिति से भी नीची या ढलाऊ हो गई होगी । भरतक्षेत्र की सीमा ७. उत्तरपुरण--४८/१०६-१०८, पद्मपुराण पर जो हैमवत पर्वत हैं, उससे महागंगा * (जैन--५/२४९-२५२), और महासिन्धु-ये दो नदियां निकल कर ८. वैदिक परम्परा के भागवत पुराण में भरत क्षेत्र में बहती हुई लवण समुद्र में जा सगर-वंश, भगीरथ द्वारा तपस्या करने, गिरती है । जहां वे दोनों समुद्र में गिरती शिव द्वारा गंगा के वेग को धारण हैं वहां से लवण समुद्र का तथा गंगा नदी करने की स्वीकृति, तथा गंगा नदी के का पानी जब इस भूमि पर लाया गया तो पृथ्वी पर अवतरण होने आदि की कथा वह उक्त गहरे व ढलाउ क्षेत्र में भरता वर्णित है (इ. भागवत पु. ९/९/१-१२)। गया । परिणामस्वरुप बड़े-बड़े सागरों का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005569
Book TitleJambudwip Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Pedhi
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year
Total Pages250
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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