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________________ * जम्बूद्वीप ज्ञान सम्भव नहीं है। मनुष्यों के आधार-स्थल शती ई. ), त्रिलोकसार (10वीं शती ई.), जम्बूजम्बद्वीपादि का निरूपण नहीं किया जाएगा, उसी द्वीवपण्णत्तिसंग्रह ( 10वीं शती ), लोकविभागतरह नरक व स्वर्ग आदि का भी वर्णन नहीं किया संस्कृत ( 11-16 वीं शती), जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति जाएगा-ऐसी स्थिति में जीव तत्व का निरूपण (500 ई. पू. से 5 वीं शती ई.), बहत्क्षेत्रसमास ही अपूर्ण ठहरेगा। (609 ई, लगभग), वृहत्संग्रहणी ( 609 ई.), __यही कारण है कि जैन-बौद्ध व वैदिक-इन तीनों प्रवचनसारोद्धार (13 वीं शती), जम्बूद्वीपसंघापरम्पराओं के साहित्य में जम्बूद्वीपादि का निरूपण यणा (8 वीं शती), जम्बूद्वीप समास ( 2-3 शती विस्तृत रूप में प्राप्त होता है। हिन्दूधर्म के है। हिन्दधर्म के ई.), लघुक्षेत्र समास आदि अनेक ग्रन्थों में जम्बूरामायण, महाभारत तथा वायुपुराण, भागवत- द्वाप-सम्बन्धी सामग्री निहित है। पुराण, ब्रह्माण्डपुराण, गरुडपुराण, मत्स्यपुराण, उपर्युक्त दृष्टि के परिप्रेक्ष्य में पूज्य पंन्यास श्री विष्णपुराण प्रादि पुराणों से जम्बूद्वीप का परिचय अभयसागरजी गगि जी समाज अभयसागरजी गणि जी महाराज की सत्प्रेरणा से . प्राप्त किया जा सकता है। बौद्ध धर्म के अभि- 'जम्बूद्वीप' नामक पाण्मासिक जर्नल प्रकाशित धर्मकोष, एवं दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय, विसुद्धि- किया जा रहा है। इसके माध्यम से जम्बूद्वीप मग्ग, महावग्ग, अट्ठसालिनी आदि ग्रन्थ जम्बू- तथा जैन भूगोल के सम्बन्ध में चिन्तन-मनन तथा द्वीपादि सम्बन्धी जानकारी के मुख्य स्रोत हैं। इस वैज्ञानिक युग में जैन मान्यताओं का परीक्षण जैन परम्परा में भी प्रागमों के अतिरिक्त लोक तथा दृढीकरण सम्भव हो सकेगा। विभाग ( 458 ई. ) तिलोयपण्णत्ति ( 2-7वीं १. न च द्वीपसमुद्रादिविशेषाणां प्ररूपणम् । निष्प्रयोजनमाशंक्यं मनुष्याधारनिश्चयात् । (तत्वार्थ श्लोकवार्तिक, खण्ड-5, पृ. 398, त. सू. 3/40 पर श्लोक 4) तदप्ररूपणे जीवतत्त्वं न स्यात् प्ररूपितम् । विशेषेणेति तज्ज्ञानश्रद्धाने न प्रसिद्धयतः ।। तन्निबन्धनमक्षुण्णं चारित्रं च तथा क्व नु । मुक्तिमार्गोपदेशो नो शेषतत्वविशेषवाक् ।। (तत्वार्थश्लोकवार्तिक, खण्ड-5, पृ. 399,त. स. 3/40 पर श्लोक सं. 6-7) . 3. तेषां ही द्वीपसमुद्रविशेषाणाम् अप्ररूपणे मनुष्याधाराणां नारक-तिर्यग्देवाधाराणामपि अप्ररूपणप्रसंगात् न विशेषेण जीवतत्वं निरूपितं स्यात् तन्निरूपणाभावे च न तद्विज्ञानं च सिद्धयेत्, तदसिद्धौ श्रद्धानज्ञान-निबन्धनमक्षुण्णं चारित्रं च क्व नु सम्भाव्यते ? मुक्तिमार्गश्च क्वैवम् ? ( तत्त्वार्यश्लोकवार्तिक, वही, पृ. 399 ) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005567
Book TitleJambudwip Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Pedhi
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year
Total Pages102
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size13 MB
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