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आकाररूप स्थापना (मूर्ति) ही छद्मस्थ जीवों द्वारा ग्राह्य होने से महान् उपकारी हैं परन्तु भाव-निक्षेप तो अरिहन्त में ही होने से वह अन्य जीवों के लिए उतना उपकारक नहीं होता ।
जिननाम और जिनमूर्ति (जिनमुद्रा) ये ही सर्वकाल में सर्व भव्यात्माओं के लिए महान् उपकारक हैं। इसीलिए विशेषावश्यक भाष्य' में नाम और स्थापना निक्षेप को महान् उपकारी कहा है ।
विचरते हुए तीर्थंकर और तीर्थंकर की मूर्ति-दोनों ही मोक्ष के निमित्त कारण के रूप में तुल्य हैं ।
साक्षात् तीर्थंकर के तथा उनकी मूर्ति के दर्शन, वन्दन, पूजन करने से भव्य जीवों को एक समान भावोल्नास पैदा होता है और इसीलिए जिनवन्दन और मूर्तिवन्दन का फल भी समान कहा है अर्थात् उसमें कोई न्यूनाधिकता नहीं है ।
इस प्रकार आगम, अनुभव और युक्ति आदि से विचार करने पर जिनमूर्ति की अनुपम और अद्भुत उपकारिता समझी जा सकती है ।
मूर्ति के आलम्बन से मुमुक्षु आत्मा मुक्ति के सुख का भोक्ता बनता है। प्रतिमा के आलम्बन बिना मोक्ष की सच्ची अभिलाषा भी जागृत नहीं होती तो फिर मोक्षप्राप्ति की तो बात ही कहां रही ?
। उक्त रीति से जिनमूर्ति की महामहिमा जानकर सब भव्यात्माओं को जिनमूर्ति का आलम्बन स्वीकारकर अनुक्रम से अनन्तसुखमय मोक्षपद को प्राप्त करने हेतु प्रयत्नशील बनना चाहिए ।
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