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कारणता जाननी चाहिए । शुद्ध-शुक्ल ध्यान की प्राप्ति अर्थात् परा-दृष्टि की प्राप्ति हो तो एवंभूतनय से प्रतिमा की निमित्त कारणता जाननी चाहिए। यहां पराभक्ति की पराकाष्ठा होती है ।
अध्यात्म, भावना, ध्यान और समता-योग की प्राप्ति भी जिनप्रतिमा के आलम्बन से अवश्य होती है । इसी तरह इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग का समावेश भी उपर्युक्त योगों में हो जाने से उनकी प्राप्ति में भी जिनप्रतिमा की निमित्त-कारणता नयभेद से घटित कर लेनी चाहिए ।
___ जिनप्रतिमा के दर्शन-वन्दन से योग की इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता और सिद्धि प्राप्त होती है । योगविंशिका में बताये हुए पांचो स्थानादि (स्थान वर्ण अर्थ-आलम्बन-अनालम्बन) योगों में जिनप्रतिमा के आलम्बन को चौथे आलम्बनयोगके रूप में बताया है । अर्थात् प्रतिमा के आलम्बन से आलम्बनयोग की प्राप्ति होती है, जिसके बिना योग की सिद्धि नहीं होती अत : जिनप्रतिमा सर्व योगों को उत्पन्न करनेवाली होने से योगजननी है ।
जिनप्रतिमा से चार अनुष्ठानों की सिद्धि
जिनप्रतिमा के दर्शन से जिनेश्वर परमात्मा के प्रति प्रीति-अनुष्ठान और भक्ति-अनुष्ठान प्रकट होते है । उनके द्वारा कथित धर्मतत्त्व को जानने की और उसका विधिपूर्वक पालन करने की अभिलाषारूप वचन-अनुष्ठान उत्पन्न होता है । शास्त्रोक्त अनुष्ठान के पालन द्वारा क्रमशः असंग-अनुष्टान की प्राप्ति होती है ।
जिनमूर्ति मूर्तिमन्त आलम्बन है । उसके रूपस्थ-ध्यान से अरूपी(रूपातीत)ध्यान उत्पन्न होता है । रूपातीत ध्यान आलम्बनयोग को प्रकट करता है और आलम्बन योग से क्रमशः केवलज्ञान एवं अयोगी अवस्था तथा सिद्धता प्राप्त होती है ।
इस तरह सब योगशास्त्रों ने और सब अध्यात्मशास्त्रों ने जिनमूर्ति को मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन प्ररूपित किया है ।
जिन पडिमा जिन सारिखी, भाखी सूत्र मोझार - इस तरह जिनागमों में तो जिनमूर्ति को जिनेश्वर तुल्य ही माना गया है । इतना ही नहीं अपितु जिनमूर्ति (स्थापना रूप से) अरिहन्त है । इस प्रकार अभेदभाव बताया गया है जो युक्तियुक्त ही है ।
जैनदर्शन में परमात्मा के साकार और निराकार ऐसे दो स्वरूप माने गये हैं । अरिहन्त साकार परमात्मा हैं । अपेक्षा से तो अरिहन्त परमात्मा सिद्ध परमात्मा से भी भव्य जीवों पर अधिक उपकार करनेवाले हैं । 'नमस्कार महामन्त्र' में सर्वप्रथम अरिहन्त परमात्मा को नमस्कार किया जाता है जो इसी रहस्य को प्रकट करता है ।
समवसरण में विराजमान अरिहन्त परमात्मा (भाव-अरिहन्त) की सौम्य आकृति (मूर्ति) को देखकर और उनकी (साकार) वाणी सुनकर के ही अनेक भव्य जीव सम्यग्दर्शन, देशविरति और सर्वविरति आदि गुण प्राप्त करते हैं ।
उनके भाव निक्षेप को या अरूपी केवलज्ञान को कोई भी छद्मस्थ जीव ग्रहण नहीं कर सकता । अर्थात् उनकी विद्यमानता में भी उनके नाम और
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