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सिरिसोमप्पहायरियविरहा
॥१०१॥
काऊण तुम्ह पयमूले पव्वनं पडिवञ्जिस्सं । ति भणिऊण समागओ निय-गेहं । तत्कालपगुणीकय-कलहोय-कलस-मुह-विणिग्गय-सलिलेहिं अणिच्छंतो वि अहिसिंचिऊण निवेसिओ रख्ने रयणचूडो। पणिवइओ मंति-सामंत-पमुह-पहाण-परिगएण खयररन्ना भणिओ य-वच्छ!
तुह जइ वि असेस-गुणागरस्स सयमेव गहिय-सिक्खस्स। सिक्खवणिज्नं थेवं पि नत्थि तह वि हु भणामि इमं ॥९९।।
थेवो वि एस विहवो विवेगवंतं पि तरलए पुरिसं। किं पुण मण-सम्मोहुप्पायण-पवणा नरिंद-सिरी? ॥१००।। ता वच्छ! जह इमीए छलिनसे नेव रज्जलच्छीए। जह खिप्पसि करण-तुरंगमेहिं विसमेहिं न कुमग्गे विसएहिं वसीकिजसि न जहा जीयंत-करण-दच्छेहिं। तह वढेजसु चिर-पुरिस-मग्ग-लग्गो नय-समग्गो भणिओ मणिचूडो वि हु अविवेयं किं न मुंचसे वच्छ!। कीस अणायारपरो होउं लहुएसि अप्पाणं?
॥१०३।। न कलेसि कुलं न गणेसि गुरुयणं अवेक्खसे [य नो ] सिक्खं । नाऽऽसंकसे अवजसं परलोय-भयं वहसि न मणे ॥१०४।। पावेसु जं पयट्टसि अकित्ति-वल्ली-विसप्पण-जलेसु। परलोय-विरुद्धेसुं विसुद्ध-जण-गरहणिज्जेसु सयल-गुण-रयण-रयणागरस्स अहिगय-कलाकलावस्स। ससिकर-विसुद्ध-कुल-संभवस्स भवओ न तं जुत्तं ॥१०६।। ता करण-निग्गहपरो परिचत्त-कुमित्त-वग्ग-संसग्गो। संपइ पसंत-चित्तो वट्टेलसु संत-मग्गम्मि
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