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विप्र लोक विषधर समा, दुःखीया नूतल मान ॥ द्रव्य लिंगी कण क्षेत्र सम, मुनिवर बीप समान ॥ १६ ॥ श्रावक मेघ समा कह्या, करता पुण्यनुं काम ॥ पुण्य नो राशि वधे घणो, तेणें पुण्यराशि नाम ॥ १७ ॥ सि०॥
८ संयमधर मुनिवर घणा, तप तपता एक ध्यान ॥ कर्म वियोगें पामीया, केवल लक्ष्मी निधान ॥ १८॥ लख एकाएं शिव वरया, नारदशुं अणगार ॥ नाम नमो तेणें आठमुं, श्रीपद गिरि निर्धार ॥ १९ ॥ सि० ॥
श्रीसीमंधर स्वामीयें, ए गिरि महिमाविलास ॥ इंद्रनी या वर्णव्यो, तेणें ए इंद्रप्रकाश ॥ २० ॥ सि० ॥ १० दश कोटि अणुव्रत धरा, जक्ते जिमाडे सार || जैनतीर्थ यात्रा करी, लाज तो नहिं पार ॥ २१ ॥ तेहथकी सिद्धाचलें, एक मुनिने दान || देतां लाज घणो हुवे, महातीरथ का निधान ॥ २२ ॥ सि० ॥
११ प्रायें ए गिरि शाश्वतो, रहेशे काल अनंत ॥ शत्रुं जय महातम सुणी, नमो शाश्वतगिरि संत ॥ २३ ॥ सि०॥
१२ गो नारी बालक मुनि चउद हत्या करनार ॥ यात्र करतां कार्तिकी, न रहे पाप लगार ॥ २४ ॥ जे
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