________________
(gu)
रे ॥ सु० ॥ १४ ॥ कैवच कांटामांदे विलो रे, में दीठो शुक पंखी को रे ॥ उडी न शके पांख अजाणी रे, लागी जाल जिहां लपटाणी रे ॥ सु० ॥ १५ ॥ एक वार जो जावुं जीवा रे, इण वन क दीय नया सूवा रे ॥ मूलो चूको कदे ही जो श्रा
लटकण फल कदेही न खातुं रे ॥ सु०॥ १६ ॥ दोहा ॥ में जाएयो चंदन बडो, बेटो घाली बाथ ॥ सुकी रुखी सुही जणो, वली न घालुं बाथ ॥१॥ सुरुतरु जाणी सेवियो, जमरो बेठो श्राय ॥ सुतो तिहां कि लोजीयो, पांख रही लपटाय ॥२॥ रे केशु म म गर्व कर, मुऊ शिर जमर बइ ॥ माल ति विरहें विखोहियो, पावक जाणी पश् ॥३॥ ॥ ढाल ॥ यतन करी में तिहांथी लीधो रे, पांख समारी सुसतो कीधो रे ॥ हाथ ग्रहीने पंख स मारी रे, इणी परें एहनी देह उगारी रे ॥ सु० ॥ ॥ १७ ॥ नीरशुं बाटी प्रफुल्लित कीधो रे, साथ नो मोदक दीधो रे || दया उपर नही धर्म अनेरो रे, पर जीव सरिखो आप केरो रे ॥ सु०
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org