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(३) सरसति विण नही वेद पुराण ॥॥ विनय विवेक वमा आचार, लक्षण लग्न लोक विवहार; माई अंकनी एकूकला, सरसति विण (ते) थाये आकला ॥ ए ॥ आगे सिक अनंता थया, सरसति विण सिकें नवि गया; सरसति विण न लाध्यां ज्ञान, विण सरसति नवि पामे मान ॥ १० ॥ सरसति मुगति तणुं ने बीज, कुमुदुवे तो आपुं धीज; ब दरशण पाखंम बन्नवे, ते सघलां सरसतिने कवे ॥ ११॥ जेदने क्यणे सरसति वास, ते खाये गियाना ग्रास; जेहने सरसति मुखने मिलि, ते मूरखमांथा जाये टली ॥ १२ ॥ सरसति माने मोटा राय, सरसति विण नाणुं न कहाय; मांहि लखमी हुए खरी, न हुए सरसति जो सिर धरी ॥ १३ ॥ जरह नेद पिंगलनी वाण, तर्क छेद ज्योतिषनी खाण; धर्म कर्म बोल्यां संसार, ते सवि सरसतिने आधार ॥ १४ ॥ तुं नारति तुंदिज जग.
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