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(१०४) के नंजे पुंठि के, उह विवि के चंग पडे; घण हथो हथे, बछे व सहो सछे सीस जिडे; करि करे कडकती, जो हम्मकि, धुजे रूड्डकी, नारू जरा ॥ जय विमल ॥ ३॥ करस्युं कर मोम के, कंद विडोम के; कोई न दोग के, हारि कहे उप्पामि अनरकर, दोण नरक; श्रावी सरकई, वेगि रहि; धम धंबड धुईकि, मांहो मांहिं के; लध्धई वाह के, थाय करा ॥ जय विमल ॥४४ ॥ घण पुरीअ माण के, जाये गण के, सवि संधाण के, दूर करे; जम जोडकि जो, हकति वो; अंबर गो, ईद घरा; विमले बल उर के, किय चकचूर के; मसद पूर के, श्रास परा ॥ जय विमल ॥५॥ विमल जमलि जव आणी, मल र रिकट; महि मंगल, रायंगण जऊत, नाम श्ररिक आखमलि; ऊमपम करि खिण एक, लेक जित्तो, जग जाणो जे एणे, वग्य वसि कस्यो, तांद कुण मल्ल समाणो; लावएय समय कहे विमले, तेह दहदिसि नंखि फेरवी;
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