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(३५) हो बांधी दृढ प्रीत अजंग,वली विशेषे वाहालो तेणे वांकमो ॥१॥ कयुं माने हो तो था मेरु समान, जो न माने तो मेरु थकी पहुं ॥ आदेरणी हो थर हुँ आलोचीने एम, मदिन मिले मालिका उंबर चहुं॥२॥देखी देखी हो वाहाला माहारा-तुम देशर, वियोग तणां पुःख जाये मुमें विसरी ॥ गणिकाए हो खाधो हतो जे माल, बमणो वाल्यो ते जुर्म में बुझे करी ॥३॥वेणी वीणा हो वीजणो वेश्या ए चार, कर पसाय आपे ते सुख सदा ॥ कर खेंची हो जव रहीए सुणो खामी, पूरव गुण नवि संजारे तदा ॥४॥गणिका सम हो नहीं को निगुणी जात, धन खूटे बटकी रहे वेगली ॥ फरी सामु हो जुवे नहीं एक वार, कयवन्नानी पेर सुपरे न सांजली ॥५॥ तात जननी हो जोये तमारी वाट, आठे पोहोर उचाट करे घणो ॥परिजन पण हो सहु धरे मनमां खेद, खबर पूढे नित्य नाथ जे पुर तणो ॥६॥ चंपावर्णी हो चतुरा हुं चांपुं पाय, अष्टांग लोग नला नित्य नोगवो ॥ पोढो ढोलीये हो वाहाला हुं ढोढुं वाय, सरस संयोगे गोरस रस जोगवो ॥७॥ व्यंजन युत हो बेसो सङनने पांत, खटरस नोजन करो
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