________________
-X
(६०)
॥ उर्जन विषे दोहा॥ ॥पाणी घणुं विलोक्यें, कर चोपड्या न हुँति ॥ निर्गुण जण उपदेशडा, निप्फल हुँति न नंति ॥१॥ पुजाण विखहर सदृश है, खेत औरके प्राण ॥ श्राप उदर न नरे तनक, पुष्ट सहाव प्रमाण ॥२॥ज्जा ण चुथा समान है, करे अमूलक चार ॥ सुख जग नहिं श्रापणी, करत ओरकू पीर ॥३॥ उजाण श्र गि सहाव है, जारत अगणित व ॥ आप तृपत होवै नहीं, नाश करत जग सब ॥४॥ उजाण श्र हिथें नितुर है,यहि मंके श्क वार ॥ उजाण काटे व यणथे, दीह रयण बहु वार ॥ ५॥ उजाणजी ज गमें नले, श्नको ए उपयोग ॥ उजाण विण सजाण हुको, उलखहीं किस लोग ॥६॥ उजाण किरतारें किये, पर दूखणहि दिखा॥वे सुणि जन चेतीक री, सीखे श्राप सदा॥७॥ पुजाण संधी गोठडी, कके.संधी नाय ॥ पाणी जेम विलोवियां, मकण नको बाय ॥ ॥ पुजाण जण बब्बूल वण, जोसी चो श्रमिएण ॥ तोहे कांटा वींधणां, जातीतणे गु णेण ॥ए॥
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org