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( ५३ )
सोपे नहिं पु० ॥ वाह्यो विनय छातीव हो ० ॥ २ ॥ त्रष्य वर्ग साधे सदा पु० ॥ जाणे अधि को धर्म हो पु० ॥ अर्थ काम धर्मविए नहिं पु० ॥ धर्म की शिवशर्म हो पु० ॥ ३ ॥ जीवदया पाले सदु पु० ॥ न करे जीवनी घात हो पु० ॥ मृषा वचन बोले नही पु०॥ श्रदत्त तणी नही वात हो पु० ॥४॥ परदारा सेवे नही पु०॥ करे सहुने उपकार हो पु०॥ अन्याय मारग टालीयो पु० ॥ दीजें शत्रुकार हो पु० ॥ ५ ॥ उत्तम आचारें चले पु० ॥ परजाने सुख कार हो पु० ॥ पाप पुण्य जाणे सह पु० ॥ जीवा जीव विचार हो पु० ॥६॥ निशिजोजन न करे कदा पु० ॥ जाणी दोष पार हो पु० ॥ सात क्षेत्रे धन वावरे पु० ॥ पण न करे अहंकार हो पु० ॥ ७ ॥ कुलवट रीत न चातरे पु०॥ कूड कपट परिहार हो पु०॥ पाले श्रज्ञा जिनतणी पु०॥ जरे सुकृत सुकृत नंगार हो पु० ॥ ८ ॥ कुमर अधिक थयो जावथी पु० ॥ धर्मी धर्म विचार हो पु०॥ किपहीनें दूहवे नही पु०॥ क्षत्री कुल शणगार हो पु० ॥ ॥ पुण्यपसायें जोगवे घुं० ॥ विषय तथा सुखजोग हो पु०॥ तीव्र परिणाम न जेहना पु०॥ जाणे दुःख संयोग हो पु० ॥ १० ॥
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