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(१) पूरुं अनूप॥४॥सा नाषे रे पंथिया,तो बे केहनी ढील हुँ एहिज ढुं अर्बु, त्यो मनमथनी मील ॥५॥ अंधहि वां आंखने, पंगू वांडे पाव ॥ तेम हुं वांबूं बूं पीयु, वरं पण पूरे राव ॥६॥ योगण तो जूली गयो, विकल थयो महिपाल ॥ दंनफंदमाहे पड्या जरीय न सके फाल ॥७॥
॥ ढाल त्रीशमी॥ ॥ मुजरो व्यो ने जालिम जाटणी ॥ ए देशी ॥
॥आतुर हुई जी परणवा, नूपति वन्न मकार ॥ सा कडे लावो जी निर्मल नीरने, त्यो चरणोदक सार, हवे सहु जोजो कौतुकवातमी ॥१॥ कामि नी कपटनंमार, नवि लहे कोई तास चरित्रनो, ब्रह्मादिक पण पार ॥ हवे ॥२॥ नृप तव दोड्यो जी नीरने कारणे, पेठगे सरोवर मांहे ॥ पात्र निपा व्यो जी पोयण पत्रनो, नस्यो जल तेहमां उबांहे॥ हवे॥३॥ जल लेई श्राव्यो जी नारी पागले, कहे श्म बे कर जोग ॥ पाउं कहो तो जी हुं घोई पीयुं, परो मनतणा कोम॥ हवे ॥४॥ नारियें दीधो पद नृपहाथमां, मूकीने कहे धोय ॥ व्यो करो थाचंबन तोयनु, माहेरी वांबना होय॥ हवे॥५॥
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