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(२७)
हो सुलग्न कोई ॥मा॥ खोले पुस्तक हो लालच वा ह्या ॥माण ॥ योतिष केरा हो पुस्तक साह्या ॥ माण ॥ १५ ॥ दूषण विडंणो हो लगन ते लीधो ॥ मा ॥ नूपें तेहने हो अतिधन दीधो ॥मा॥ अतिसनमा नी हो गृहे पोहोचाव्या ॥ मा॥ पासा ढलीया हो नृप मन जाव्या ॥मा॥ १३ ॥ हर्षपयोधि हृदयें न मावे ॥माण॥ उत्सव महोत्सव हो नूरि उपावे ॥माण ॥ पण को नृपनो हो गुह्य न जाणे ॥ मा॥सहुको साधु हो करीने प्रमाणे ॥ मा० ॥ १४ ॥ आगले जोजो हो करमनी कांणी ॥ मा० ॥ पण ते ढाले हो वहेसे पाणी ॥ मा० ॥ ढाल ए दसमी हो मन थिर राखी ॥ मा० ॥ मोहनविजयें हो रंगें नाखी ॥ मा० ॥ १५॥
॥दोहा॥ ॥ सेवक नृप आदेशश्री, जलासक्तिकृतमिसि एगायो पूर विवाहपर, कृष्णागरकृत धूम ॥१॥ समियाणा ताण्या नला, तिम तोरण लहकंत ॥ का णे घटा घन ऊनही, केकी नृत्य करंत॥२॥ मृगम द सूधा अरगजा, परिमल करता नूरि ॥ घरघर ढो स धमाल अति, नेह सरुदंता तूरि ॥ ३॥ कमध
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