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(४५) ॥अथ श्री दीवालीन स्तवन ॥ ॥ वाल्हाजीनी वाटमी अमें जोतां रे ॥ ए देशी॥
जय जिनवर जग हितकारी रे, करे सेवा सुर अवतारी रे, गौतम पमुहा गणधारी ॥१॥ सनेही वीरजी जयकारी रे॥ ए आंकणी ॥ अंतरंग रिपुने त्रासे रे, तप कोपाटोपें वासे रे, लद्यु केवल नाण उल्लासें ॥ २ ॥ स ॥ कटिलंके वाद वदाय रे, पण जिनसाथें न लढाय रे, तेणे हरिलंबन प्रभु पाय रे ॥३॥ स ॥ सवि सुरवहू थे थे। कारा रे, जलपं. कजनी परें न्यारा रे, तजी तृष्णा जोग विकारा॥४॥ सम् ॥ प्रभुदेशना अमृत धारा रे, जिनधर्म विधे रथकारा रे, जेणे तार्या मेघकुमारा ॥५॥ स०॥गौतमने केवल थाली रे, वर्या स्वातियें शिव वरमाली रे, करे उत्तम लोक दीवाली ॥६॥ स० ॥ अंतरंग अलबी निवारी रे, शुन सजानने उपगारी रे कहे वीर विभु हितकारी ॥ ७॥ स० ॥ इति ॥
॥ अथ श्रीवीरप्रभुनुं दीवालीनुं स्तवन ॥ मारग देसक मोदनो रे, केवल ज्ञान निधान ॥ जाव दया सागर प्रभु रे, परउपगारी प्रधानो रे॥१॥
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