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(६५) रमणिक विराम॥१॥ वैरागी सोनागी हो सद्गुरु सांजलो, जे कह्यां चार दृष्टांत ॥ हुँ नहीं थालं हो तिण परें स्वामीजी,धरम तणी बहु खंति॥ वैरागी० ॥२॥ सेतंबिका श्रादें हो गाम तो मुज घणां, सं ख्या सात हजार ॥ नाग हुँ करशुं हो स्वामीजी तेदना, इणीपरें चार प्रकार ॥ वैरा० ॥३॥ एक तो जाग हो देशु बल वाहने, एक तो जाग कोगर ॥ त्रीजो नाग हो देशुं श्णीपरें, अंतेउर परिवार ॥ वैराण ॥४॥ एके जागे हो शाला अतिवडी, करशुं कूडागार ॥ पुरुष घणेरा हो चाकर राखशुं, देश्मोल अपार ॥ वैरा० ॥ ५॥ चारे नेदें हो तिहां करावी ने, अशनादिक थाहार ॥श्रमण माहणहो जिस्कु पंथीया, देशं विविध प्रकार ॥ वैरा॥६॥णी परें वहेंची हो थर निश्चिंतशु, पालशुं शील श्राचार ॥ व्रत पच्चरकाण हो करशुं श्रतिघणां, पोषध विधि विस्तार ॥ वैरा ॥ ७॥ इणीपरें स्वामी हो विह रशं हं सही, जाव शब्द अधिकार ॥ श्रावक गुण हो सहु श्म जाणीय, जिणथी हुवे जवपार ॥ वैरा० ॥७॥णीपरें जांखी हो गुरुने रायजी, पहुता
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