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( ३७ ) एक दिवस हुं साधुजी रे लालन, बाहिर सजा म कार रे ॥ म० ॥ बेठो परषद में सही रे लालन, म लिया लोक पार रे ॥ म० ॥ ति० ॥ ३ ॥ इ समे इणि परें विहरतो रे लालन, तिए समे नगर ना पाल रे ॥ म० चोर आयो गुनही घणुं रे ला लन, माल सहित समकाल रे ॥ म० ॥ ति० ॥ ४ ॥ ते में पुरुषनें ति समे रे लालन, माराव्यो मन खंत रे ॥ म० ॥ लोहनी कुंजीमां सही रे लालन, घलाव्यो तुरंत रे ॥ म० ॥ ति० ॥ ५ ॥ ढंकाव्यो लोह ढांकणे रे लालन, वली राख्यो ति पास रे ॥ मं० ॥ प्रतीतिकारी श्रादमी रे लालन, बेदेवा जीव उल्लास रे ॥ म० ॥ ति० ॥ ६ ॥ तिवार पढी ढुं एकदा रे लालन, जिहां बे कुंजी ठाम रे ॥ म० ॥ तिहां हुं श्राव्यो आपथी रे लालन, उघडावी ते स्वामी रे ॥ ० ॥ ति० ॥ ७ ॥ तिण लोहकुंजी मां घणारे लालन, कमी दीठा अनेक रे ॥ म० ॥ पण तिए कुंजी में तिहां रे लालन, बिद्र न दीठो बेक रे ॥ म० ॥ ति० ॥ ८ ॥ राय पडी नहीं तिहां किऐ रे लालन, जिणकरि पेठा जीव रे ॥ म० ॥ जो तिण कुंजी मां तिदां रे लालन, होवे बिद्र अतीव रे ॥
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