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श्री सिद्धचक्राय नमः
अथ चंद राजानो रास प्रारंभः
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॥दोहा॥ प्रथम धराधव तिम प्रथम, तीर्थंकर श्रादेय ॥
प्रथम जिणंद दिणंद सम, नमो नमो नान्नेय ॥१॥ अर्थ ॥ प्रथम राजा, तेमज प्रथम तीर्थकर अने प्रथम जिने एवा श्री नालिराजाना पुत्र ज्ञषजदेवनगवंत जे सूर्य समान महातेजस्वी तेउने वारंवार नमस्कार था ॥१॥
अमितकान्ति अनुत शिखा, शिर नूषित सोडाह ॥
प्रगट्यो पद्मजह थकी, सिंधु सलिल प्रवाह ॥२॥ अर्थ ॥ अपरिमित कान्तिवाली, मस्तक उपर सुशोजित एवी जेमनी अद्भुत शिखा, जाणे पद्मवह थकी सिंधुनदीना जलनो प्रवाह उत्साहथी प्रगट्यो होय, तेवी देखायजे ॥२॥
कुधासही केवल लही, दीधुं प्रथमज मात ॥
जननीवत्सल एमजे, तेजगजात सुजात ॥३॥ अर्थ ॥ जेठए तुधाने सहनकरी केवलज्ञान प्राप्तकर्यु अने जे प्रथम मातानेज आप्युं, एवा जननीवत्सल प्रनु था जगत्मा एकज उत्तम जन्म्या ॥३॥
जासवंश अवतंस सम, प्रजुतायुक्त सुजुक्ति ॥
विलसि मुकर निवासमे, वरी वधू जे मुक्ति ॥४॥ __ अर्थ ॥ जेमनो वंश आजूषण समान अने जेमने प्रजुता साथे उत्तम जोगविलासने, तेमळतां परिणामे आरिसा नुवनमां केवलज्ञान रूप विलास पामी मुक्तिरूप स्त्रीने जेर्ड वरेला ॥४॥
लघु वय श्छा शकुनी, पारण दिनपण तेह ॥
मिष्ट इष्ट प्रजुने सदा, मीठो मंगल एद ॥ ५ ॥ अर्थ ॥ बालवयमा प्रनुने शेलडीनी ला अश्हती अने जे प्रजुने पारणाने दिवसेपण प्राप्तथश्हती एवी ते मीठी वस्तु उत्तम मंगल रूप होवाथी प्रनुने प्राप्तथतां प्रनु पण मीठगे मंगल कहेवाय ॥ ५॥
गणधर छादश अंगिका, धारक सूत्र कदेव ॥
जंगमनाण तणा जलधि, पुंडरीक प्रणमेव ॥६॥ अर्थ ॥ बार अंगने धारण करनारा, सूत्रना कथन करनारा अने ज्ञानना जंगम समुप्ररूप श्री पुंडरिक गएधरने प्रणाम करूंबुं ॥६॥
तुं वरदा तुं शारदा, सचराचर थानास ॥ कहेतां शील संबंधनो, वस मुज मुख श्रावास॥७॥
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