________________
२३४
चतुर्थ उल्लास. अर्थ ॥ तेथी चार मास सुधी आप पोतानी नजर पासेज तेने रूडी रीते राखजो. ९ पण निरंतर श्रा घेरज आवी तेनी खबर लेती रहीश ॥ ५॥ जो चार मासनी अवधिमां तमारो मनोरथ एनाथी परिपूर्ण श्राय तो एनाज सोगंद खाइने कहुं के पली श्रमारी अने तमारी वचे कां वांधो पडवानो नथी. ॥६॥
ग शिवमाला एम कही, निज थानक पुर मांहि ॥
कुर्कट कर धरी प्रेमला, करे बहिनी बांहि ॥७॥ अर्थ ॥ ए प्रमाणे वातचित करी शिवमाला पोताने स्थानके गइ. अहीं प्रेमला खली कुकडाने हायमां खर बन गया हायनी कर्या करे .॥७॥
॥ ढाल ५ मी॥
॥ जटीयाणीनी ॥ देशी॥ कुर्कटना मुख सामुं हो नित नित जुए प्रेमला, से उमा निश्वास ॥ यांसुडा नयणाथी हो वरसावे प्रेम प्रकाशथी,करी करी विरह विखास ॥ कु॥१॥ कामण गारा प्यारा हो हवे न्यारा मुजथी कां रहो, निपट
अटारा होय ॥ सारीसर अनुकारा हो जलधारा वरसे अंबरे,पियु विण वारे कोय । अर्थ ॥ हवे प्रेमला लगी निरंतर कुकडाना मोढानी सामु जोइ जोइने ठंडा निसासा मुके . वली प्रेमनो प्रकाश करती तेमज वियोगना मुखने गाती थकी आंखमांथी श्रांसुनो वरसाद वरसावे . ॥१॥ हे मारा वहाला कामणगारा हवे माराथी न्यारा शामाटे रहो गे? तमे खरेखरा हनीला थाउंगे. काम देवना बाणनी जेवी आकाशमांथी मेघ जलनी धारा वरसी रही ने तेनाथी अतां विरहना मुखने नाथ विना कोण टाली शके तेम .॥२॥
उत्तरवाली कालीहो, असराली नालीने घटा, हृदय विफाली थाय ॥ चपला ए ऊबकारा हो करवाला कमला पुत्रनी, विरहणीये न सहाय ॥ कु० ॥३॥ जेम जेम जलधर गाजे हो, तेम पियुमो लाजे का नही,परिहरी प्रमदा पूर ॥ शण टाणे जो विराजे हो मुजने तो निवाजे साहिबो,श्ण शतु नही पंगुर॥कु॥४॥ अर्थ ॥ उत्तर दिशामांत्री आवती अत्यंत काली एवी मेघनी घटाने देखीने मारू अंतःकरण फाटी जाय जे. वली कमला पुत्रनी तलवार जेवी ऊबकारा मारती विजलीने देखीने श्रा विरहिणीने न सहन थाय एवी व्यथा श्राय ॥३॥ जेम जेम था वरसाद गर्जना करे ने तेम तेम पोतानी प्रमदाने तजीने दूर गयेलो एवो मारो स्वामिनाथ शुं शरमातो नहीं होय ? श्रा समये जो मारो नाथ अहीं बिराजतो होय तो मने अनेक रीते तृप्त करी दे. तेथी तेना विना मने था ऋतु सुंदर लागती नथी. ॥४॥
ए जील्ली थर निही हो तनु वही चूटे पियु विना, निरखी एकली गेह ॥ ते माटे पंखीमाहो तजी बीमा पीमा वारी ए, करी क्रीमा नव नेह ॥कु॥॥ शिवमाला जे बाला हो इहां वचन रसालां कही गर, सह्यां में पंखी तेद ॥ श्राव्या बो हवे हाथे हो मुज साथे न करो श्रांतरो, माथे वरसे मेह ॥६॥
Jain Education International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org