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________________ ( ६० ) 0 हु प्रेम रे ॥ १ ॥ मनडुं रे ० ॥ ए यांकली ॥ में जनमीने वनमें मुकीयो रे, स्नान कराव्युं न साहि रे । वरें धरीने न विधवरावीयो रे, खांति रहे मनमांहि रे || || मनडुं || यांख न प्रांजी यणी खालडी रे, प्रर्द्धचंद नवि कीयो जाल रे ॥ हेजशुं नवि दुलरावीयो रे, अंगज मुफ सु कुमाल रे ॥ ३ ॥ मनडुं० ॥ नजर नरी नवि जोईयो रे, मुऊ दीन दैव विठोह रे ॥ जल विण माउली टन वलुं रे, मुऊ घणो पुत्रनो मोह रे ॥ ४ ॥ मनडुं ० ॥ मय परेहा मिथिलापुरी रे, सुरपहोती करि याण रे ॥ जिहां नमि मल्लि जिनवर तणांरे, जनम व्रत केवलनाय रे ॥ ॥ ५ ॥ मनडुं० ॥ प्रथम जुहायां देहरों रे, पी गई साधवी पास रे ॥ पाय कमन प्रणमी कर। रे, खागल बेठी उल्लास रे ॥ ६ ॥ मन० ॥ साधवी धर्म संनलावीयोरे यावियो परम संवेग रे ॥ सुर कहे चाल नृपमंदि रें रे, पुत्र देखाडुं तुज वेग रे ॥ ७ ॥ मन० ॥ मयणरे हा कहे मादरे रे, पुत्रशुं नहीं प्रतिबंध रे॥ धिक् धिक् मो दनी कर्मने रे, हुं थइ मूढमति अंध रे ॥ ८॥ मन० ॥ पुत्रनी मोहनी में तजी रे, थिर कुटुंब परिवार रे ॥ जि नधर्म एक सखायि रे, प्रवर संसार असार रे || मन० ॥ तो हवे सुख जिम तिम करी रे, ढुं व्रत लेगुं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005374
Book TitleKarkanduadik Char Pratyek Buddhno Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages104
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size7 MB
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