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आनंदघनजी कृत पद. ४१ ॥ह ॥ १ ॥ पंच पचीश पच्चास हजारी, लाख कि रोरी दाम् ॥ खाय खरचे दीये विनु जात है, आनन कर कर श्याम ॥॥॥ इनकेननके शिवके नजीके, नरज रहे विनु ठाम ॥ संत सयाने कोय बतावे, आ नंदघन गुनधाम ॥ ह ॥ ३ ॥ इति पदं ॥
॥ पद असोतेरसुं ॥ राग रामग्री ॥ ॥ जगत गुरु मेरा में जगतका चेरा, मिट गया वा द विवादका घेरा ॥ ज० ॥ १ गुरुके घरमें नवनि घि सारा, चेलेके घरमें निपट अंधारा ॥ ज ॥ गुरुके घर सब जरित जराया, चेलेकी मढीयांमें बपर बाया ॥ ज० ॥ २ ॥ गुरु मोही मारे शब्दकीलाठी, चेलेकी मति अपराधनी काठी ॥ ज० ॥ गुरुके घरका मरम न पाया, अकथ कहांनी आनंदघन नाया ॥ज॥३॥
॥ पद उगण्याएंशीमुं ॥राग जयजयवंती॥ - ॥ ऐसी कैसी घरवसी, जिनस अनेसीरी॥ याही घर रहिसें जगवाही, आपद है इसी री ॥ ऐ॥१॥ परम सरम देसी, घरमेंन पेसी री॥याही तें मोहनी मैसी, जगत सगैसी री ॥ ऐ ॥ ॥ कौरीसीगरज नेसी, गरज न चखेसी री ॥ आनंद घन सुनो सीबंदी, अरज कहेसी री ॥ ऐ० ॥ ३ ॥ इति पदं॥
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