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(३६) नपुंसक वली ॥ १२॥ थोडं श्रायु होय तेह तएं, किशे कमै होये ते घणुं ॥ लोग रति शे नवि जोगवे, तेहिज जोग नला जोगवे ।। १३ ॥ किशे कमें सोजागी होय, किशे कमें दोजागी जोय ॥ तेहिज बुद्धि तणो नंमार, किशे कर्मे नवि बुधि लगार ॥ १४॥ तेहिज पंमितमांहे प्रधान, शे कर्मे थाये थझान ॥ नीरु धीरु कोण कर्मे सोय, विद्या सफल निःफल केम होय ॥ १५ ॥ नासे धन वाधे थिर थाय, जन्म्या पुत्र न जीवे काय ॥ पौढा पुत्र घणा शे स्वामि, बहिरपणुं शे कर्मे विराम ॥ १६ ॥ जात्यंधो नर शें अवतरे, के कमें भोजन नवि जरे ॥ किशे कर्मे कोढी कूबडो, दासपणुं पामे बापडो ॥ १७ ॥ किशे कर्मे दारिधि जंत, किशे कर्मे तेहज धनवंत ॥ रोगे पीड्यो पाडे री च, रोग रहित शें थाये जीव ॥ १७ ॥ गोयम पूढे क हो जिनवीर, शे कर्मे होये हीन शरीर ॥ तसु परजव शुं पडीयो चूक, जे एणे नवे थाये ते मूक ॥ १५ ॥ किशे कर्मे लूंगे पांगलो, किशे कर्मे रुपें श्रागलो। विकट कर्मनु कहो स्वरुप, तेहिज नर केप्न थाये कुरुप ॥२०॥ किशे कर्मे वेदना अनंत, वेदन विण केम था में जैत । मी तन पंचेंजिय-तणुं, केम पामे एकेंदि
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