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लोच करी प्रभु स्वहयें रे, लीधो दीरक पवित्त रे ॥ प्र० ॥ ११ पूरी सरस कहे जयतसी रे, ए कही नगरात्रोशमी ढाल रे ॥ कयवन्नो व्रत व्यादरे रे, वां चरण त्रिकाल रे ॥ २३ ॥ ॥ दोहा ॥
॥ जिनवर मुनिवर वांदीनें, राजा प्रजा बहु लोक ॥ सहु याव्या घर छापणें सुखें वसे शुभ योग ॥ १ ॥ कयवन्नो मदोटो जती, पाले सखरी दीख ॥ ग्रहणाने प्रासेवनी, शीखे हितधरी शीख ॥ २ ॥ चारित्र बेइ चोंपशु, पाजे निरतिचार || पांचे इंद्रिय वश करे, धन्य तेहनो अवतार ॥ ३ ॥
॥ ढाल त्रीशमी ॥ राग धन्याश्री ॥ मो मनरो हेडाव हो मिसरि ठाकुर महिदरो ॥ अथवा ॥ नोलीडा हंसा रे विषय न राचीयें ॥ ए देशी ॥
॥ चारित्र पाले हो सूधुं सिंह ज्युं, धन्य कयव नो साध ॥ यविरां पासे हो सूत्र जो जलां, शीखे खरथ अगाध ॥ चारि ॥ १ ॥ जयणा करतो दो चाले मारगें, कनो रहे जोइ जीव ॥ जयणासेंती हो बेसे पूंजीनें, सूतां जया सदीव ॥ चा० ॥ २ ॥ जयपासेंती हो मुख साधुं चवे, न वदे मिरषा वाद ॥ जया करीनें हो जिमे सूजतुं, जूखुं यन्न निःखाद ॥
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