________________
७६ . विनयविलास विजय वाचक शिष्य जपे, बुध जननी बलिहारीजी ॥ च० ॥५॥ इति ॥
॥पद त्रेवीशमुं॥ ॥राग श्राशावरी ॥ जोगी एसा होय फलं, परम पुरुषशुं प्रीत करुं ॥ उरसें प्रीत हरु ॥ १ ॥ निर विषयकी मुखा पहेरुं, माला फीराऊं मेरा मनकी ॥ ग्यान ध्यानकी लाठी पकरु, जनूत चढाऊं प्रजुगुनकी ॥२॥शील संतोषकी कंथा पढेरे, विषय जलावु धूणी ॥ पांचं चोर पेरें करी पकरूं, तो दिलमें न होय चोरी हुंणी ॥३॥खबर लेऊ में खिजमत तेरी, शब्द सींगी बजाऊं ॥ घट अंतर निरंजन बेठे, वासुं लयलगाऊं ॥ ४ ॥ मेरे सुगुरुने उपदेश दिया है, निरमल जोग बतायो ॥ विनय कहे में उनकुं ध्याकं, जिने सुफ मारग दिखायो ॥ ५ ॥ इति ॥
॥पद चोवीशमुं॥ ॥ मगध देशको राज राजेसर ॥ एदेशी ॥ जंगलथी एक जायो चोपद, नयर वसंतो दीगे॥ नवि बीये नवी नासे त्रासे, बेसे थिर अति धीगे॥१॥ चतुर नर अर्थ विचारी कहियें ॥ चतुराई निवहीयें।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org