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॥अथ॥ ॥श्रीजशविलास प्रारंभः॥
॥पद पदेखें ॥ ॥राग धन्याश्री ॥ चेतन ज्ञानकी दृष्टि निहालो ॥ चेतन ॥ टेक ॥ मोह दृष्टि देखे सो बाउरो,होत महा मतवालो ॥ चेतनः ॥१॥ मोह दृष्टि अति चपल करतहे, नव वन वानर चालो ॥ योग वियोग दावानल लागत, पावत नांहि विचालो॥ चेतन ॥२॥ मोह दृष्टि कायर नर डर, करे - कारन टालो ॥ रन मेदान लरे नहीं अरिसुं, सूर लरेज्युं पालो ॥ चेतन॥३॥ मोह दृष्टि जन जनके परवश, दीन अनाथ मुखालो॥मागेनीख फरे घर घरसुं, कहे मुकुं को पालो ॥ चेतन ॥४॥ मोद दृष्टि मद मदिरामाती, ताको होत उबालो ॥ पर अवगुन राचे सोश्रह निस, काग असुचिज्यों कालो। चेतनः ॥५॥ ज्ञान दृष्टिमां दोष न एते, करे झान अजुश्रालो ॥ चिदानंद घन सुजस वचन रस, स. जान हृदय पखालो ॥ चेतन० ॥६॥ इति ॥
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