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जशविलास ४५ जः॥२॥ गुरु ब्रह्मन श्रचुत जन सजान, जातन कवण निवेत ॥ सेवा नहीं प्रजु तेरी कबहु, जुवन नीलको खेत ॥ ज०॥३॥ कथे नहीं गुन गीत सु. जस प्रजु, साधन देव अनेत ॥ रसनारस विगारो कहांलों, बुडत कुटुंब समेत ॥ न० ॥ ४ ॥ इति ॥
॥पद साठमुं॥ ॥प्रज्जु तेरो गुन ज्ञान, करत मदा मुनि ध्यान, समरत श्रागे जाम, हृदेमें समायो हे ॥ प्रजु०॥ ॥१॥ मन मंजन कर लायो, सुक समकित ठहरायो, वचन काय समजायो, एसे प्रजुकुं ध्यायो हे ॥प्र० ॥२॥ध्यायो सही पायो रस, अनुभव जाग्यो जस, मिट गयो भ्रमको रस,ध्याता ध्येय समायो हे ॥ प्रण ॥३॥ प्रगट जयो महा प्रकास, ज्ञानको महा उदास ॥ एसो मुनिराज ताज, जस प्रजु यो हे॥ प्र० ॥४॥
॥पद एकसपमुं॥ ॥राग कनमो ॥ ए परम ब्रह्म परमेश्वर, परम श्रानंदमयि सोहायो ॥ ए परतापकी सुख संपत्ती बरनी न जात मोपें, ता सुख अलख कहायो॥
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