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अष्टपदी
१५ ए
या ॥ कहा ढूंढत तुं मूरख पंढी ॥ श्रानंद हाट ना बेकावो ॥ श्र० ॥ १ ॥ एसी दशा आनंद सम प्रगटंत, ता सुखं छालख लखावो ॥ जोइ पावे सोइ केतु न कहावत, सुजस गावत ताको वधावो ॥ श्रा० ॥२॥ ॥ पद बहुं ॥
॥ राग कानडो ताल रूपक ॥ श्रानंदकी गत आनंदघन जाणे ॥ ० ॥ वाइ सुख सहज अचल अलख पद, वा सुख सुजस बखाने ॥ श्र० ॥ १ ॥ सुजस विलास जब प्रगटे आनंदरस, आनंद यक्षय खजाने ॥०॥ श दशा जब प्रगटे चित्त तर, सोहि श्रानंदघन | पाने ॥ श्र० ॥ ३ ॥ इति ॥ ॥ पद सातमुं ॥
॥ एरी आज यानंद जयो मेरे ॥ तेरो मुख निरख निरख रोम रोम, शीतल जयो अंगो अंग ॥ परी० ॥ १ ॥ शुद्ध समजल समतारस जीलत, श्रा.. नंदन जयो अनंत रंग ॥ एरी० ॥ २ ॥ ऐसी श्राचंद्र दशा प्रगटी चित्त अंतर, ताको प्रभाव चलत ! निरमल गंग ॥ वादी गंग समता दोउ मिल रहे,
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