________________
१५०.
अष्टपदी तापर लगायो हे अविहड रंग ॥ जसविजय कहे सुनतही देखो, सुख पायो बोत अनंग॥धानं॥२॥
॥ पद त्रीजुं॥ ॥ राग नायकी ताल चंपक ॥ श्रानंद कोउ नहिं पावे, जोपावे सोश्यानंदघन ध्यावे॥श्रा० ॥ यानंद कोन रूप कोन आनंदघन, आनंद गुण कोन लखावे ॥ श्रा॥१॥ सहेज संतोष श्रानंद गुण प्रगटत, सब सुविधा मिट जावे ॥ जस कहे सोही श्रानंदघन पावत,अंतरज्योत जगावे॥श्रा॥॥ति
॥ पद चोथु ॥ ॥ राग ताल चंपक ॥ श्रानंद गेर गेर नहिं पाया, श्रानंद आनंदमें समाया ॥ श्रा० ॥ रति अरति दोउ संग लीय वरजित, श्ररथने हाथ तपाया ॥ श्रा० ॥१॥ कोउ श्रानंदघन बिपही पेखत, जस राय संग चमी श्राया ॥ आनंदघन आनंदरस जीलत, देखतही जस गुण गाया॥श्रा०॥ ॥ इति ॥
॥पद पांचमुं॥ ॥ राग नायकी ॥ श्रानंद कोउ हम देखलावो,
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org